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________________ अर्थ-जो जिस भाव से ध्यान करता है वह वैसे ही उसके साथ एकता प्राप्त करता है। भ्रमरी के संसर्गयोग से उसके ध्यान से इस लोक में इलिका भी भ्रमरी हो जाती है। तन्मय ध्यान से साधक कैसे ध्येयाकार हो जाता है यह स्पष्ट करना द्रष्टांत का हेतु है। पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्यानमाम्नातं तादात्म्यप्रतिपत्तये ॥ १५॥ अन्वय-तादात्म्यप्रतिपत्तये पिण्डस्थं च पदस्थं रूपस्थं रूपवर्जितं ध्यानं चतुर्धा आम्नातम् ॥ १५ ॥ अर्थ-(ध्येय के साथ) तादात्म्य की प्राप्ति के लिए अर्थात् ध्येयाकार होनेके लिये पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ये चार प्रकार के ध्यान बताए गए हैं। ये द्विव्यरूपा मुनयः सिद्धास्तन्नामजापतः । पदस्थं खलु रूपस्थं स्यात्तेषां स्थापनादिषु ।। १६ ।। अन्वय-ये दिव्यरूपा सिद्धाः मुनयः तन्नामजापतः पदस्थं खलु तेषां स्थापनादिषु रूपस्थं स्यात् ॥१६॥ अर्थ-पदस्थ एवं रूपस्थ ध्यान की व्याख्या कर रहे हैं कि जो दिव्य रूप वाले सिद्ध मुनि हैं उनके नाम का जाप पदस्थ ध्यान है और उनकी स्थापनादि निक्षेप द्वारा जो ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान की कोटि में आता है। स्वस्मिन्नेव च ताद्रूप्ये पिण्डस्थं भाविते सति । आत्मन्येव यदात्मा थाः स्थितिस्तद्रूपवर्जितम् ॥ १७ ॥ अन्वय-स्वस्मिन् एव ताद्रप्ये भाविते सति पिण्डस्थं च यदा आत्माथाः आत्मनि एव स्थितिः तद् रूपवर्जितम् ।। १७ ।। ... सप्तदशोऽध्यायः १८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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