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________________ एकमेवात्मनस्तत्त्वं ज्ञेयं सिद्धान्तचिन्तनैः । निवार्य भवकार्याणि मदनोन्मादनिग्रहात् ॥९॥ अन्वय-मदनोन्मादनिग्रहात् भवकार्याणि निवार्य सिद्धान्त. चिन्तनः एकं आत्मनः तत्त्वं एव ज्ञेयं ॥ ९ ॥ अर्थ- इसीलीये इस निरुपण के भेद को गौण करते हुए कहते ह ) काम उन्माद आदि अवस्थाओंका दमन और भवबन्धनकारी कार्यों के निवारण हेतु एक मात्र आत्म तत्त्व को सिद्धांत चिंतन से जानना चाहिये । विवेचन-आत्मशुद्धि के त्रिविध मार्ग को जानना यही तत्त्व चिंतन का प्रधान हेतु है। मन, वचन और काया में, वचन और काया की शुद्धि मन की शुद्धि के हेतु है और मनोशुद्धि का प्रधान साधन है एकाग्र चित्त से ध्यान । इसीलिये ध्यानमार्ग की चर्चा आगे की गई है। शास्त्राद्विदित तत्त्वस्य घिरक्तस्यापि कामिनः ।। ध्यानेनात्मा भवेत्साक्षादित्याहुर्योगपाक्षिकाः ॥ १० ॥ अन्वय-शास्त्रात् विदिततत्त्वस्य विरक्तस्य अपि कामिनः ध्यानेन आत्मा साक्षात् भवेत् इति योग पाक्षिकाः आहु ॥ १०॥ .... अर्थ-(संवर) योग के पक्ष धर कहते हैं कि शास्त्रों में विदित तत्त्वज्ञान से विरक्त किंतु आत्मतत्त्व के अर्थी पुरुष को भी ध्यान से आत्मसाक्षात्कार हो जाता है। अर्थात् समग्र तत्त्वदर्शन् का हेतु आत्म दर्शन ही है जो ध्यान से होता है। श्रोतव्यश्चापि मंतव्यः साक्षात्कार्यश्चभावनैः । जीवो मायाविनिर्मुक्तः स एष जीवः परमेश्वरः ॥११॥ अन्वय-श्रोतव्यः च अपि मंतव्यः भावनैः साक्षात्कार्यः मायाविनिर्मुक्तः स एष जीवः परमेश्वरः ॥ ११ ॥ एकोनविंशोऽध्यायः १८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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