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एकोनविंशोऽध्यायः तपोबल से आत्मा परमात्मा पद
A [गौतम स्वामी फिर पूछते हैं कि हे ऐश्वर्यशाली परमात्मा मुझे बह
उपाय बताइए जिससे परम तत्त्व का प्रकाशन हो जाय। श्री भगवान् ने उत्तर दिया कि चिदानन्दमय ज्योति ही तत्त्व रूप है एवं वह तपोबल से प्रकट होती है। वही ज्योति संसार में मिथ्यामोहन्धकार का नाश करने वाली जगत् को प्रकाशित करने वाली शक्ति है। तप के प्रभाव से जीवों को आत्मसिद्धि एवं शुद्ध स्वरूपता प्राप्त होती है। बाह्य तप से काया की शुद्धि, विनित व्यवहार से वचन शुद्धि एवं स्वाध्याय से मन की शुद्धि होती है। इन तीन शुद्धियों से आत्मा की शुद्धि होती है। इस आत्म-तत्त्व के ज्ञान के लिए ही नव तत्त्वो की प्ररूपणा की गई है। इन तत्त्वो के ज्ञान से आत्म तत्त्व का साक्षात्कार होता है। इसी आत्मा का श्रवण, मनन एवं ध्यान से साक्षात्कार करना चाहिए। माया निर्मुक्त यह आत्मा ही परमात्मा है। इस तद्रूपता को पाने के लिए क्रमशः भावसे से तन्मय जीव परमेश्वर का ध्यान करता है तब परमेश्वरमय हो जाता है। ध्यानमार्ग में पिण्डस्थ
पदस्थादि चार प्रकार के ध्यान कहे गये हैं। ध्यान का प्रारंभ होता है । चित्त की. एकाग्रता होने की शक्ति से और क्रमशः रूपातीत ध्यान में
आरोहण से ध्याता और ध्येय एकरूप हो जाते हैं। ]
एकोनविंशोऽध्यायः
अ. गी.- १२
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