SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थ- प्रपंच पैदा करने के हेतु से माया भी इच्छा को बढ़ाती है अतः उसकी निवृत्ति के लिए उत्पाद एवं व्यय की भावना भी करनी चाहिए अर्थात् यह सोचना चाहिए कि जिस इच्छा की उत्पत्ति हुई है उनका नाश भी अवश्यंभावी है। अर्थात् नाशवंत् इच्छा शाश्वत् सुखकी हेतु कैसे हो सकती है ? एकं मौलनयात्तत्त्वं स्यात्सत् गौणनया(त् ) द्विधा । एकस्मिन् भूरूहे नाना मुक्तं पुष्पं फलं दलम् ॥ ७॥ अन्वय-मौलनयात् तत्त्वं एकं गौणनयात् सत् द्विधा स्यात् एकस्मिन् भूरूहे पुष्पं फलं दलं मुक्तं ॥ ७॥ अर्थ-प्रधान निश्चय नय से तो (सत् रूप) तत्त्व एक ही है पर गौण व्यवहार नय की अपेक्षा से वही दो प्रकार का हो जाता है जैसे एक ही पेड़ पर अंकुर फूल फल एवं पत्ते अलग अलग दिखाई देते हैं। विवेचन-वस्तु स्वभाव में कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद का दर्शन होता है। अपने अपने स्थान पर दोनो सत्य है। एकं यत्तदनेकं स्यात्सदसद्भिन्नमन्यथा । अनित्यं नित्यमाख्येय-मनाख्येयं जगद्विधा ॥ ८ ॥ अन्वय-यत् एकं तत् अनेकं स्यात् सत् असत् भिन्नम् अन्यथा अनित्यं नित्यं आख्येयं जगत् अनाख्येयं ॥८॥ अर्थ-जो सत् तत्त्व एक रूप है वह अनेक रूप भी है। सत् और असत् दोनों ही भिन्न हैं। जो सत् भिन्न है वह अन्यथा अभिन्न भी है जो अनित्य है वह (अन्यथा) नित्य भी है जो वाच्य है वह (अन्यथा) अवाच्य भी है। विवेचन-विरोधी द्विगुणात्मक स्वरूप में ही सत् का दर्शन होता है क्योंकि यह वस्तु स्वभाव है। सप्तदशोऽध्यायः अ. गी.-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy