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अर्थ-श्री भगवान ने उत्तर दिया संसार में सभी साधक निर्विघ्न साधन के लिए प्रयत्न करते हैं अतः उस पर ब्रह्म की प्राप्ति के लिए भी उसकी प्राप्ति में बाधा रूप वासनाओं का नाश कर लेना चाहिए। अर्थात् आपत्ती का कारण एतत्व की भावना में नहीं किंतु वासनाओं के उद्गम में है वह आगे स्पष्ट किया है।
मायापि ब्रह्मरूपैव तद्विवर्तमयी स्वयम् । सवात्तथार्थकारित्वात् प्रपंचोऽस्याः विजृम्भते ॥ ४ ॥
अन्वय-माया अपि ब्रह्मरूपा एव स्वयं तद्विवर्तमयी सत्त्वात् तथार्थकारित्वात् अस्याः प्रपंचः विजृम्भते ॥४॥
अर्थ-मायारूपी प्रकृति भी ब्रह्म का ही रूप है एवं स्वयं विवर्त स्वरूपा है। उस ब्रह्म के सत्त्व से एवं विवर्त से इस माया का प्रपंच संसाररूप में प्रतिफलित होता है ।
भास्वन्मणिप्रदीपादेः प्रभानैकान्ततोऽपरा। न धर्मिणः परा सत्ता धर्माणां सर्वथा क्वचित् ॥ ५ ॥
अन्वय-भास्वन् मणिप्रदीपादेः प्रभा एकान्ततः अपरा न धर्मिणः परा धर्माणां सत्ता न क्वचित् सर्वथा परा ॥५॥
अर्थ-प्रकाशित मणि दीपों आदि की ज्योति एकान्त से उनसे भिन्न नहीं होती है वैसे ही धर्मी से भिन्न धर्मों की सत्ता सर्वथा भिन्न नहीं होती है। दीप और ज्योति प्रकाश की अपेक्षा से एक व पर्याय की अपेक्षा से भिन्न दिखाई देते हैं।
प्रपंचजननान्माया-पीच्छामात्मनि वर्धयेत् ।
तस्या निवृत्तये भाव्या व्युत्पादविगमावपि ॥ ६॥ - अन्वय-प्रपंचजननात् माया अपि आत्मनि इच्छां वर्धयेत् । तस्या निवृत्तये व्युत्पाद विगमौ अपि भाव्यौ ॥ ६ ॥
... आहेगीता
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