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अन्वय-चैतन्ये पुद्गलवस्तुनः गुणभावेन आनंत्यात् धर्माधर्मादि युक्तः अपि लोकः व्योम्ना अलोकवत् हि ॥७॥
अर्थ-चैतन्य को यदि गौण माना जाए तो पुद्गल वस्तुओं की अनन्तता दिखाई देती है जैसे आकाश तो एक ही है पर धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय की उपाधि से वह लोकाकाश एवं धर्मादि से रहित अलोकाकाश कहा जाता है।
भावनासु यथा भाव्यः संसारस्योपलक्षणात् । सिद्धः स्वभावलोकस्य तथा लोकोऽपि शाश्वतः ॥ ८ ॥
अन्वय-संसारस्य उपलक्षणात् भावनासु यथा भाव्यः तथा स्वभावलोकस्य लोकः अपि शाश्वतः सिद्धः॥८॥
अर्थ-संसार ( वस्तु अनन्तता) को गौण मानकर जैसी भावना की जाती है वैसा ही लोक का रूप सिद्ध होता है उसी भावना से लोक भी शाश्वत अनादि अनन्त दिखाई देता है।
उर्ध्वलोकादधोलोको-ऽप्यलोकोऽस्मात्तथैव सः । भव्यलोकादभव्योऽपि सिद्धः संसारिलोकतः ॥९॥
अन्वय-अस्मात् (लोकात्) तथैव स अलोकः उर्ध्वलोकात् अधोलोकः भव्यलोकात् अभव्य संसारिलोकतः अपि सिद्धः॥९॥
___ अर्थ-उर्ध्वलोक की अपेक्षा से अधोलोक वैसे ही लोक की अपेक्षा से अलोक और भव्यलोक की अपेक्षा से अभव्यलोक, संसारी जीव की अपेक्षा से मुक्तजीव सिद्ध का भेद माना जाता है।
चैतन्यशक्त्याविष्टः सद्भावो जीव इति स्मृतः।
तदभावादजीवोऽन्यः ख्यातेयं कल्पना भुवि ॥ १० ॥ १५२
अर्हद्गीता
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