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अन्वय-व्यवहारनयाश्रयात् इदं सर्व विश्वं वैकल्पिकम् । गौणमुख्यविवक्षातः सर्व अर्थसंचयः ख्यातः॥४॥
अर्थ-श्री भगवान ने कहा, हे गौतम व्यवहार नय से तो यह सारा संसार विकल्पात्मक है। गौण और मुख्य की अपेक्षा से सारा संसार नाना रूपात्मक दिखाई देता है।
भाव एकस्तस्य शक्तिः द्वैविध्यं मूलतो मतम् । समयस्य धुरात्रं वाध्यक्षं तत्तदुपाधितः ॥ ५ ॥
अन्वय-मूलतः भाव एकः तस्य शक्तिः द्वैविध्यं मतम्। समयस्य तत् तद् उपाधितः द्यु वा रात्रं अध्यक्षम् ॥ ५॥
अर्थ-(किन्तु) मूल रूप से भाव (सद्भाव अथवा ब्रह्म) एक ही है। और उसकी शक्ति दो प्रकार की मानी गई है। प्रकृति की उपाधि से वह द्विविध दिखाई देता है। समय के भी प्रकाश और अन्धकार की उपाधि से दिन और रात के दो भेद प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं।
लोक्यते केवलज्ञात्रा लोकोऽपि द्रव्यपर्ययः । लोकवत् सिद्ध एवायं तन्नैकान्तेन तद्भिदा ॥ ६ ॥
अन्वय-केवलज्ञात्रा द्रव्यपर्ययैः लोकः अपि लोक्यते। सिद्ध एव अयं तत् एकान्तेन तद्भिदा न ॥ ६॥
अर्थ-केवलज्ञानी द्रव्य और पर्याय की भावना से संसार को देखता है अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से यह संसार नित्य है किंतु पर्याय की भावना से यह अनित्य भी है। इसी संसार की भांति ही यह भाव (ब्रह्म) भी सिद्ध ही है। वह एकान्त से न तो द्रव्य रूप है और न पर्याय रूप है अर्थात् ब्रह्म भी नित्य और अनित्य दोनो है।
चैतन्ये गुणभावेना-ऽनंत्यात् पुद्गलवस्तुनः ।
धर्माधर्मादियुक्तोऽपि व्योम्ना लोकोऽह्यलोकवत् ॥ ७॥ षोडशोऽध्यायः
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