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________________ चतुर्दशोऽध्यायः श्री गौतमउवाच ऐन्द्रं स्वरूपं नाडिभि-ज्योतिज्ञों वा भिषग्वरः । भूतं भावि भवद्वेत्ति ज्ञेयं तन्मनसा कथम् ॥ १॥ अन्वय-ज्योतिः मिषग्वरः वा नाड़ीभिः भूतं भावि भवत् वेत्ति तन्मनसा कथं ज्ञेयम् ।। १॥ अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने पूछा हे भगवान् ज्योतिषी तथा वैद्य नाड़ियों से ही भूत भविष्य एवं वर्तमान को जान लेते हैं ऐसा मन से किस प्रकार जाना जा सकता है ? श्री भगवानुवाच नाभिस्थं नाडिकोरः श्वं मनश्चक्रं प्रचालयेत् । वायुना तेन संकल्पा जायन्ते बाह्यहेतुभिः ॥२॥ अन्वय-नाभिस्थं नाडिकोरः स्वं मनश्चक्रं प्रचालयेत्। तेन वायुना बाह्यहेतुभिः संकल्पा जायन्ते ॥२॥ अर्थ-नाभिकमल में स्थित नाडिमण्डल अपने मन के चक्र को संचालित करता है उसी वायु से बाह्य कारणों द्वारा संकल्प उत्पन्न होते हैं। अर्थात् जिस जिस विषय के सम्पर्क में मन आता है तदनुसार संकल्प उत्पन्न होते हैं। प्राणायामवलामन्त्रध्यानाज्जीवस्य भावनात् । ब्रह्मद्वारे मनो लीनं भवेद्विश्वप्रकाशकम् ॥ ३॥ अन्वय-जीवस्य भावनात् प्राणायाम् बलात् मंत्रध्यानात् ब्रह्मद्वारे लीनं मनः विश्वप्रकाशकं भवेत् ॥३॥ १३२ अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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