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________________ अर्थ - अपना अभ्युदय चाहने वाले जीवों को इन गुणों तथा धैर्यादि अन्य गुणों से युक्त व्यक्ति से महागुणों को प्राप्त करने के लिये इच्छा करनी चाहिए । भाविक हृदय से महान गुणी का स्मरण करना चाहिये । गुणों को स्मरण करने वाले व्यक्ति का नाश नहीं होता है अर्थात् कल्याण ही होता है । प्रायशो गुणपात्रेण श्रीनिवासेन साम्प्रतम् । esed रहितो लोकः पाप्मना कलिनेक्षितः ॥ २० ॥ अन्वय- साम्प्रतं पाप्मना कलिना इक्षितः लोकः श्री निवासेन गुणपात्रेण प्रायशः रहितः दृश्यते ॥ २० ॥ अर्थ - ( किंतु ) इस युग में पापयुक्त कलियुग के प्रभाव से संसार श्रीसम्पन्न गुणी लोगों से प्रायः हीन दिखाई देता है 1 क्षान्त्यादि दशधा धर्मेऽन्तर्भवन्ति गुणाः समे । शुद्धैर्य तैर्गुणैर्योगात्तत्ब्रह्म समुपास्यताम् ॥ २१ ॥ अन्वय - क्षान्त्यादियतेः दशधा धर्मे समे गुणाः अन्तर्भवन्ति । शुद्धैः तैः गुणैः योगात् तत् ब्रह्म समुपास्यताम् ॥ २१ ॥ अर्थ - ( इसलिये) क्षमा आदि साधु के दस प्रकार के धर्मों में उपरोक्त समस्त गुण समाहित होते हैं और उन शुद्ध गुणों के योग से उस (अरिहंत स्वरूप ) आत्म ब्रह्म की उपासना करो । ११० विवेचन - जिनवचन ज्ञान को प्रकट करता है। ज्ञान का सार है चारित्र जो फलित होता है श्रद्धा और सद्गुणों की प्राप्ति से और चारित्र का सार है मोक्ष जो वीतराग मार्ग का लक्ष्य है । ॥ इति एकादशोऽध्यायः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only अर्हद्गीता www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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