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________________ अर्थ- सर्वप्रथम पृथक्त्व वितर्क सविचार रूप शुक्लध्यान रूपी प्रथम पाद का स्पर्श करना चाहिए फिर एकत्व वितर्क अविचार से केवलज्ञान प्रकट होता है । विवेचन - धर्मध्यानी महात्मा मनोयोग के निरोधसे शुक्लध्यान में; क्रमशः निर्विचार अवस्थामें संक्रमण करता है। ध्यान के विषय में धर्मध्यान और शुक्लध्यान को समझने के लिये परिशिष्ट को देखिये । व्यानातीत अवस्था में जो ज्ञान प्रत्यक्ष होता है उसे आंशिकरूपमें बौद्धिक स्तर पर प्रकाश करने के लिये अनेकांत भावसे नयवादका निरुपण आगे दिखाया गया है। स्यात्सामान्यविशेषात्म-भवः प्रामाण्यगोचरः । योsनेकान्तवादेन नयमार्गादनेकधा ॥ ४ ॥ अन्वय - सामान्यविशेषात्मभवः प्रामाण्यगोचरः ज्ञेयः अनेकान्तवादेन नयमार्गात् अनेकधा स्यात् ॥ ४ ॥ अर्थ - सामान्य एवं विशेषात्मक यह संसार प्रमाणों से दृश्यमान हैं I इस संसार को अनेकान्तवाद के द्वारा नय मार्ग से अनेक रूप में जानना चाहिए। जैसे संसार नित्य भी हैं एवं अनित्य भी है, एक भी है अनेक भी है। ( नय ज्ञान के लिए परिशिष्ट देखिए ) विवेचन - हरेक धर्म में एक निश्चित विचारधारा विकसित होती है जैसे कि arind आत्माको नित्य माना और बौद्ध दर्शन ने अनित्य | यह विरोधाभास - उलझन पैदा करता है । सत्यको कैसे जाने ? अलग अलग द्रष्टि से तत्त्व के शास्त्रिय स्वरूप को देखना यह नयवाद है । सप्तनयो में सर्व दर्शनोकी मान्यताओं का समावेश किया गया है। अपेक्षा या द्रष्टि के भेद से नयवाद तत्त्व के अनेक दर्शन भेद दिखाता है और अनेकांत भावसे समन्वय करनेका रहस्य भी प्रकट करता है । सामान्यं संग्रहो वक्ति ऋजुसूत्रो विशेषवाक् । स्वतंत्रौ नैगमादेतौ लोकोक्त्या व्यवहारधीः ॥ ५ ॥ अन्वय-संग्रहो सामान्यं वक्ति विशेषवाक् ऋजुसूत्रो। एतौ नैगमात् स्वतंत्र लोकोक्त्या व्यवहारधीः ॥ ५॥ दशमोऽध्यायः Jain Education International For Private & Personal Use Only ९३ www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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