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________________ ४८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ श्लोकदोहा-वस्तु विशेष विकल्पको, नहिं करता मतिमान । स्वात्मनिष्ठतासे छुटत, नहिं बँधता गुणवान ॥४४॥ और भी कहते हैं परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम् । अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः ॥४६॥ अन्वय-परः परः ततो दुःखं, आत्मा आत्मा एव ततः सुखम् अतएव महात्मानः तन्निमित्तं कृतोद्यमाः। टीका-परो देहादिरर्थः पर एव कथंचिदपि तस्यात्मीकर्तुमशक्यत्वात् । यतश्चैवं ततस्तस्मादात्मन्यारोप्यमाणो दुःखमेव स्यात्तवारत्वाद् दुःखनिमित्तानां प्रवृत्तेः । तथा आत्मा आत्मैव स्यात् । तस्य कदाचिदपि देहादिरूपत्वानुपादानात् । यतश्चैवं ततस्तस्मात्सुखं स्यादुःखनिमित्तानां तस्याविषयत्वात् । यतश्चवम् अत एव महात्मानस्तीर्थकरादयस्तस्मिन्निमित्तमात्मार्थ कृतोद्यमा विनिहिततपोनुष्ठानाभियोगा संजाताः। अथ परद्रव्यानुरागे दोषं दर्शयति-॥४५।। अर्थ-दूसरा दूसरा ही है, इसलिये उससे दुःख होता है, और आत्मा आत्मा ही है, इसलिये उसे सुख होता है। इसीलिये महात्माओंने आत्माके लिये ही उद्यम किया है। विशदार्थ-पर देहादिक अर्थ, पर ही है । किसी तरहसे भी उन्हें आत्मा या आत्माके सदृश नहीं बनाया जा सकता। जब कि ऐसा है तब उनसे (आत्मा या आत्माके मान लेनेसे) दुःख ही होगा । कारण कि दुःखके कारणोंकी प्रवृत्ति उन्हींके द्वारा हुआ करती है। तथा आत्मा आत्मा ही है, वह कभी देहादिकरूप नहीं बन सकता। जब कि ऐसा है, तब उससे सुख ही होगा । का कारण कि दुःखके कारणोंको वह अपनाता ही नहीं है। इसीलिये तीर्थकर आदिक बड़े-बड़े पुरुषोंने आत्माके स्वरूपमें स्थिर होनेके लिये अनेक प्रकारके तपोंके अनुष्ठान करनेमें निद्रा, आलस्यादि रहित अप्रमत्त हो उद्यम किया ॥४५॥ दोहा-पर पर तातें दुःख हो, निज निज ही सुखदाय । __ महापुरुष उद्यम किया, निज हितार्थ मन लाय ॥४५॥ परद्रव्यों में अनुराग करनेसे होनेवाले दोषको दिखाते हैं अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं, योऽभिनन्दति तस्य तत् । न जातु जन्तोः सामीप्यं, चतुर्गतिषु मुञ्चति ॥४६॥ अन्वय-यः अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं अभिनन्दति तस्य जन्तोः तत् चतुर्गतिषु सामीप्यं जातु न मुञ्चति । टोका-यः पुनरविद्वान् हेयोपादेयतत्त्वानभिज्ञः पुद्गलद्रव्यं देहादिकमभिनन्दति श्रद्धत्ते आत्मात्मीयभावेन प्रतिपद्यते तस्य जन्तोर्जीवस्य तत्पुद्गलद्रव्यं चतसृषु नारकादिगतिषु सामीप्यं प्रत्यासत्ति संयोगसंबन्धं जातु कदाचिदपि न त्यजति । अथाह शिष्यः-स्वरूपपरस्य किं भवतीति सुगम् । गुरुराह-॥४६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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