________________
४५-४६-४७-४८ ] इष्टोपदेशः
४९ अर्थ-जो हेयोपादेयके स्वरूपको न समझनेवाला, शरीरादिक पुद्गल द्रव्य को आप ( आत्मा ) रूप तथा अपनेको ( आत्माके ) मानता है, उस जीवके साथ नरकादिक चार गतियोंमें वह पुद्गल अपना सम्बंध नहीं छोड़ता है, अर्थात् भव-भवमें वह पुद्गलद्रव्य जीवके साथ बँधा ही रहता है । उससे पिंड नहीं छूट पाता ॥४६॥
दोहा-पुद्गलको निज जानकर, अज्ञानी रमजाय ।
चहुँगतिमें ता संगको, पुदगल नहीं सजाय ॥४६॥ आत्मस्वरूपमें तत्पर रहनेवालेको क्या होता है ? आचार्य कहते हैं
आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य, व्यवहारबहिःस्थितः ।
जायते परमानन्दः, कश्चिद्योगेन योगिनः ॥४७॥ अन्वय-आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिः स्थितेः योगिनः योगेन कश्चित् परमानन्दो जायते ।
टोका-आत्मानोऽनुष्ठानं देहादेप्वयं स्वात्मन्येवावस्थापनं तत्परस्य व्यवहारात्प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणाद्वहिःस्थिते बाह्यस्य योगिनो ध्यातुर्योगेन स्वात्मध्यानेन हेतुना कश्चिद् वाचामगोचरः परमोऽनन्यसंभवी आनन्दः उत्पद्यते । तत्कार्यमुच्यते-॥४७।।
अर्थ-देहादिकसे हटकर अपने आत्मामें स्थित रहनेवाले तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति-लक्षणवाले व्यवहारसे बाहर दूर रहनेवाले ध्यानी योगी पुरुषको आत्म-ध्यान करनेसे कोई एक वचनोंके अगोचर परम जो दूसरोंको नहीं हो सकता ऐसा आनन्द उत्पन्न होता है ॥४७॥
दोहा-ग्रहण त्यागसे शून्य जो, निज आतम लवलीन ।
योगीको हो ध्यानसे, कोइ परमानन्द नवीन ॥४७॥ उस आनन्दके कार्यको बताते हैं
आनन्दो निर्दहत्युद्धं, कर्मेन्धनमनारतम् ।
न चासौ खिद्यते योगी, बहिर्दुःखेष्वचेतनः ॥४८॥ अन्वय-( सः) आनन्दः उद्धं कर्मेन्धनम् अनारतं निर्दहति योगी असौ च बहिर्दुःखेषु अचेतनः न खिद्यते ।
टीका-स पुनरानन्द उद्धं प्रभूतं कर्मसंतति निर्दहति । वह्निरिन्धनं यथा । किं च असावानन्दाविष्टो योगी बहिर्दुःखेषु परीषहोपसर्गक्लेशेषु अचेतनोऽसंवेदनः स्यात्तत एव न खिद्यते न संक्लेशं याति । यस्मादेवं तस्मात्-||४८॥
अर्थ-जैसे अग्नि, ईन्धनको जला डालता है, उसी तरह आत्मामें पैदा हुआ परमानन्द, हमेशासे चले आए प्रचुर कर्मोको अर्थात् कर्म-सन्ततिको जला डालता है, और आनन्दसहित योगी, बाहरो दुःखोंके -परोषह उपसर्ग-संबंधी क्लेशोंके अनुभवसे रहित हो जाता है। जिससे खेदको (संक्लेशको) प्राप्त नहीं होता ॥४८||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org