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४२-४३-४४ ]
इष्टोपदेश:
अन्वय - यो यत्र निवसन् आस्ते स तत्र रतिं कुरुते यो यत्र रमते स तस्मान्न गच्छति ।
टीका -- यो जनो यत्र नगरादौ स्वार्थे सिद्धयङ्गत्वेन बद्धनिर्बन्धवास्तव्यो भवन् तिष्ठति स तस्मिन्नन्यस्मान्निवृत्तचित्तत्त्वान्निर्वृतित्वं लभते । यत्र यश्च तथा निर्वाति स ततोऽन्यत्र न यातीति प्रसिद्धं प्रतीतम् । अतः प्रतीहि योगिनोऽध्यात्मं निवसतोऽननुभूतापूर्वानन्दानुभवादन्यत्र वृत्त्यभावः स्यादिति । अन्यत्राप्रवर्त्तमानश्चेदृक् स्यात् ॥४३॥
अर्थ - जो जहाँ निवास करने लग जाता है, वह वहाँ रमने लग जाता है और जो जहाँ लग जाता है, वह वहांसे फिर हटता नहीं है ।
विशदार्थ - जो मनुष्य, जिस नगरादिक में स्वार्थकी सिद्धिका कारण होनेसे बन्धुजनों के आग्रहसे निवासी बनकर रहने लग जाता है, वह उसमें अन्य तरफसे चित्त हटाकर आनन्दका अनुभव करने लग जाता है और जो जहाँ आनन्दका अनुभव करता रहता है, वह वहाँसे दूसरी जगह नहीं जाता, यह सभी जानते हैं । इसलिये समझो कि आत्मामें अध्यात्ममें रहनेवाले योगी अननुभूत जिसका पहिले कभी अनुभव नहीं हुआ) और अपूर्व आनन्दका अनुभव होते रहने से उसकी अध्यात्मके सिवाय दूसरी जगह प्रवृत्ति नहीं होती ||४३||
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दोहा - जो जामें बसता रहे, सो तामें रुचि पाय । जो जामें रम जात है, सो ता तज नहिं जाय ॥४३॥
जब दूसरी जगह प्रवृत्ति नहीं करता तब क्या होता है ? उसे आगेके श्लोक में आचार्य कहते हैं
अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च
जायते । अज्ञाततद्विशेषस्तु, बध्यते न विमुच्यते ॥ ४४ ॥
अन्वय - अगच्छन् तद्विशेषाणां अनभिज्ञश्च जायते अज्ञाततद्विशेषस्तु न बध्यते, विमुच्यते ।
टीका - स्वात्मतत्त्वनिष्टोऽन्यत्र अगच्छन्नप्रवर्तमानस्तस्य स्वात्मनाऽन्यस्य देहादविशेषाणां सौन्दर्यासौन्दर्यादिधर्माणामनभिज्ञ आभिमुख्येनाप्रतिपत्ता च भवति । अज्ञाततद्विशेषः पुनस्तत्राजायमानरागद्वेषत्वाकर्मभिर्न बध्यते । किं तर्हि ! विशेषेण व्रतायनुष्ठातृभ्योऽतिरेकेण तैर्मुच्यते । किं च ॥४४॥
अर्थ - अध्यात्मसे दूसरी जगह प्रवृत्ति न करता हुआ योगी, शरीरादिककी सुन्दरता असुन्दरता आदि धर्मो की ओर विचार नहीं करता और जब उनके विशेषोंको नहीं जानता, तब वह बंधको प्राप्त नहीं होता, किन्तु विशेष रूपसे छूट जाता है ।
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विशदार्थ - स्वात्मतत्त्वमें स्थिर हुआ योगी जब अध्यात्मसे भिन्न दूसरी जगह प्रवृत्ति नहीं करता, तब उस स्वात्मासे भिन्न शरीरादिके सौन्दर्य- असौन्दर्य आदि विशेषोंसे अनभिज्ञ हो जाता है और जब उनकी विशेषताओंपर ख्याल नहीं करता, तब उनमें राग-द्वेष पैदा न होनेके कारण कर्मों से बंधता नहीं है, किन्तु व्रतादिकका आचरण करनेवालोंकी अपेक्षा भी कर्मोंसे ज्यादा छूटता है ||४४||
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