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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोकव शरीरके द्वारा करे । इसी प्रकार भोजनके लिये जाते हए भी नहीं जा रहा है, तथा सिद्ध प्रतिमादिकोंको देखते हुए भी नहीं देख रहा है, यही समझना चाहिये । फिर-॥४१॥
दोहा-देखत भी नहिं देखते, बोलत बोलत नाहि ।
दृढ़ प्रतीत आतममयो, चालत चालत नाहिं ॥४१॥ किमिदं कीदृशं कस्य, कस्मात्क्वेत्यविशेषयन् ।
स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायणः ॥४२॥ अन्वय-योगपरायणः योगी किम् इदं, कीदृशं, कस्य, कस्मात्, क्व इति अविशेषयन् स्वदेहम् अपि न अवैति ।।
टीका-इदमध्यात्ममनुभूयमानं तत्त्वं किं किंरूपं कीदृशं केन सदृशं कस्य स्वामिकं कस्मात्कस्य सकाशाक्व कस्मिन्नस्तीत्यविशेषयन् अविकल्पयन्सन् योगपरायणः समरसीभावमापन्नो योगी स्वदेहम पि न चेतयति का कथा हिताहितदेहातिरिक्तवस्तूचेतनायाः । तथा चोक्तम्तदा च परमैकाग्याबहिरर्थेषु सत्स्वपि । अन्यन्न किंचनाभाति, स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥१७२।।
-तत्त्वानुशासनम्. अत्राह शिष्यः-कथमेतदिति । भगवन् विस्मयो मे कथमेतदवस्थान्तरं संभवति । गुरुराह-धीमन्निबोध ।।४२॥
अर्थ-ध्यानमें लगा हुआ योगी यह क्या है ? कैसा है ? किसका है ? क्यों है ? कहाँ है ? इत्यादिक विकल्पोंको न करते हुए अपने शरीरको भी नहीं जानता। .
विशदार्थ-यह अनुभवमें आ रहा अन्तस्तत्त्व, किस स्वरूपवाला है ? किसके सदृश है ? इसका स्वामी कौन है ? किससे होता है ? कहाँपर रहता है ? इत्यादिक विकल्पोंको न करता हुआ किन्तु समरसीभावको प्राप्त हुआ योगी जो अपने शरीरतकका भी ख्याल नहीं रखता, उसकी चिन्ता
व परवाह नहीं करता. तब हितकारी या अहितकारी शरीरसे भिन्न वस्तुओंकी चिन्ता करनेकी । बात ही क्या ? जैसा कि कहा गया है--"तदा च परमैका."
यहाँपर शिष्य कहता है कि भगवन् ! मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसी विलक्षण विभिन्न दशाका होजाना कैसे सम्भव है ?
उस समय आत्मामें आत्मको ही देखनेवाले योगीको बाहरी पदार्थोके रहते हुए भी परम एकाग्रता होनेके कारण अन्य कुछ नहीं मालूम पड़ता है ।।४२॥ .. दोहा-क्या कैसा किसका किसमें, कहाँ यह आतम राम ।
तज विकल्प निज देह न जाने, योगी निज विश्राम ॥४२॥ आचार्य कहते हैं, धीमन् ! सुनो, समझो
यो यत्र निवसन्नास्ते, स तत्र कुरुते रतिम् । यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति ॥४३॥
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