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________________ ४०-४१] इष्टोपदेश: विशदार्थ - लोगों के मनोरंजन करनेवाले चमत्कारी मन्त्र-तन्त्र आदिके प्रयोग करनेकी वार्त्ताएँ न हुआ करें, इसके लिये अर्थात् अपने मतलब से लाभ अलाभ आदिक के प्रश्न पूछने के लिये आनेवाले लोगों को मना करने के लिये किया है प्रयत्न जिसने ऐसा योगी स्वभावसे ही जनशून्य - पहाड़ों की गुहा-कन्दरा आदिकोंमें गुरुओंके साथ रहना चाहता है। ध्यान करनेसे लोकचमत्कारी बहुत से विश्वास व अतिशय हो जाया करते हैं, जैसा कि कहा गया है - "गुरूपदेशमासाद्य ०” "गुरुसे उपदेश पाकर हमेशा अच्छी तरह अभ्यास करते रहनेवाला, धारणाओं में श्रेष्ठता प्राप्त हो जानेसे ध्यानके अतिशयों को भी देखने लग जाता है।" अपने शरोरके लिये अवश्य करने योग्य जो भोजनादिक, उसके वशसे कुछ थोड़ासा श्रावकादिकोंसे "अहो, देखो, इस प्रकार ऐसा करना, अहो, और ऐसा, यह इत्यादि' कहकर उसी क्षण भूल जाता है । भगवन् ! क्या कह रहे हो ? ऐसा श्रावकादिकों के द्वारा पूछे जानेपर योगी कुछ भी जवाब नहीं देता । तथा ॥४०॥ दोहा - निर्जनता आदर करत, एकांत सवास विचार । निज कारजवश कुछ कहे, भूल जात उस बार ॥४०॥ ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते, गच्छन्नपि न गच्छति । स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति ॥४१॥ अन्वय- - स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु ब्रुवन् अपि न ब्रूते गच्छन् अपि न गच्छति पश्यन् अपि न पश्यति । टीका - स्थिरीकृतात्मतत्त्वो दृढप्रतीतिगोचरीकृतस्वस्वरूपो योगी संस्कारवशात्परोपरोधेन ब्रुवन्नपि धर्मादिकं भाषमाणोऽपि न केवलं योगेन तिष्ठति ह्यपिशब्दार्थः । न ब्रूते हि न भाषत एव । तत्राभिमुख्याभावात् । उक्तं च "आत्मज्ञानात्परं कार्यं, न बुद्धी धारयेच्चिरम् । कुर्यादर्थवशात्किचिद्वाक्कायाम्यामतत्परः ॥५०॥ - समाविशतकम्, तथा भोजनार्थं व्रजन्नपि न व्रजत्यपि । तथा सिद्धप्रतिमादिकमवलोकयन्नपि नावलोकयत्येव । तुरेवार्थः । तथा - ॥४१॥ अर्थ – जिसने आत्म-स्वरूप के विषय में स्थिरता प्राप्त कर ली है, ऐसा योगी बोलते हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता और देखते हुए भी नहीं देखता है । विशदार्थ - जिसने अपनेको दृढ़ प्रतीतिका विषय बना लिया है, ऐसा योगी संस्कारोंके वशसे या दूसरोंके संकोचसे धर्मादिकका व्याख्यान करते हुए भी नहीं बोल रहा है, ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि उनको बोलनेकी ओर झुकाव या ख्याल नहीं होता है जैसा कि कहा है- " आत्मज्ञानात्परं कार्यं • । " “आत्म-ज्ञानके सिवा दूसरे कार्य को अपने प्रयोग में चिरकाल तक ज्यादा देरतक न ठहरने देवे | किसी प्रयोजनके वश यदि कुछ करना पड़े, तो उसे अतत्पर होकर अनासक्त होकर वाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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