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________________ ४४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ श्लोकटोका-योगीत्यन्तदीपकत्वात्सर्वत्र योज्यः । स्वात्मसंवित्तिरसिको ध्याता चराचरं बहिर्वस्तुजातमश्योपेक्षणीयतया हानोपादानबुद्धिविषयत्वादिन्द्रजालिकोपर्शितसर्पहारादिपदार्थसदृशं पश्यति । तथात्मलाभाय स्पहयति चिदानन्दस्वरूपमात्मान संवेदयितुमिच्छति । तथा अन्यत्र स्वात्मव्यतिरिक्ते यत्र क्वापि वस्तुनि पूर्वसंस्कारादिवशात्मनोवाक्कायैर्गत्वा व्यापृत्य अनुतप्यते स्वयमेव आ कथं मयेदमनात्मीनमनुष्ठितमिति पश्चात्तापं करोति । तथा-॥३९॥ अर्थ-योगी समस्त संसारको इन्द्रजालके समान समझता है । आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये अभिलाषा करता है । तथा यदि किसी अन्य विषयमें उलझ जाता, या लग जाता है तो पश्चात्ताप करता है। विशदार्थ:-श्लोक नं० ४२ में कहे गये “योगी योगपरायणः" शब्दको अन्त्यदीपक होनेसे सभी "निशामयति स्पृहयति" आदि क्रियापदोंके साथ लगाना चाहिये । स्वात्म-संवेदन करनेमें | आनन्द आता है. ऐसा योगी इस चर. अचर. स्थावर, जंगमरूप समस्त बाहरी वस्तुसमहको त्याग और ग्रहणविषयक बुद्धिका अविषय होनेसे अवश्य उपेक्षणोय रूप इन्द्रजालियाके द्वारा दिखलाये हुए सर्पहार आदि पदार्थों के समूहके समान देखता है। तथा चिदानन्द-स्वरूप आत्माके अनुभवकी इच्छा करता है और अपनी आत्माको छोड़कर अन्य किसी भी वस्तुमें पहले संस्कार आदि कारणोंसे यदि मनसे, वचनसे या कायसे, प्रवृत्ति कर बैठता है, तो वहाँसे हटकर खुद ही पश्चात्ताप करता है, कि ओह ! यह मैंने कैसे आत्माका अहित कर डाला ॥३९।। दोहा-इन्द्रजाल सम देख जग, निज अनुभव रुचि लात । ___ अन्य विषयमें जात यदि, तो मनमें पछतात ॥३९॥ आत्मानुभवीके और भी चिह्नोंको दिखाते हैं इच्छत्येकान्तसंवासं, निर्जनं जनितादरः । निजकार्यवशात्किञ्चिदुक्त्वा विस्मरति व्रतम् ॥४०॥ अन्वय-(योगी) निर्जनं जनितादरः एकान्तसंवासं इच्छति निजकार्यवशात् किञ्चिदुक्त्वा . द्रुतं विस्मरति । ___ टोका-एकान्ते स्वभावतो निर्जने गिरिगहनादौ संवासं गुर्वादिभिः सहावस्थानमभिलषति । किविशिष्टः सन, जनितादरो जनमनोरञ्जनचमत्कारि-मन्त्रादि-प्रयोगवानिवृत्तौ कृतप्रयत्नः । कस्मै निर्जनं जनाभावाय स्वार्थवशाल्लाभालाभादिप्रश्नार्थ लोकमुपसर्प्यन्त निषेध्यमित्यर्थः । ध्यानाद्धि लोकचमत्कारिणः प्रत्ययाः स्युः । तथा चोक्तम् "गुरूपदेशमासाद्य, समभ्यस्यन्ननारतम् । धारणासौष्ठवाध्यानप्रत्ययानपि पश्यति" ॥ तथा स्वस्वावश्यकरणीयभोजनादिपारतन्त्र्यात्किचिदल्पमसमग्रं श्रावकादिकं प्रति अहो इति अहो इदमिति अहो इदं कुर्वन्नित्यादि भाषित्वा तत्क्षण एव विस्मरति । भगवन् किमादिश्यत इति श्रावकादौ पच्छति सति न किमप्युत्तरं ददाति । यथा ____ अर्थ-निर्जनताको चाहनेवाला योगी एकान्तवासकी इच्छा करता है और निज कार्यके वशसे कुछ कहे भी तो उसे जल्दी ही भुला देता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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