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________________ ३७-३८-३९ ] इष्टोपदेशः अन्वय-यथा यथा सुलभा अपि विषयाः न रोचन्ते तथा तथा उत्तमं तत्त्वं संवित्ती समायाति । अत्रापि पूर्ववद्वयाख्यानम् । तथा चोक्तम्"विरमे किमपरेणाकार्यकोलाहलेन, स्वयमपि निभृतः सन्पश्य षण्मासमेकम् । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो, ननु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः" ।।२।। -नाटकसमयसारकलशाः जीवाजीवाधिकारः । प्रकृष्यमाणायां च स्वात्मसंवित्तौ यानि चिह्नानि स्युस्तान्याकर्णय । यथा--॥३८॥ अर्थ-ज्यों-ज्यों सहजमें भी प्राप्त होनेवाले इन्द्रिय विषय-भोग रुचिकर प्रतीत नहीं होते हैं, त्यों त्यों स्वात्म-संवेदनमें निजात्मानुभवको परिणति वृद्धिको प्राप्त होती रहती है । विशदार्थ-विषय-भोगोंके प्रति अरुचि भाव ज्यों-ज्यों वृद्धिको प्राप्त होते हैं त्यों-त्यों योगीके स्वात्म-संवेदनमें निजात्मानुभवको परिणति वृद्धिको प्राप्त होती रहती है । कहा भी है-"विरम किमपरेणाo" - आचार्य शिष्यको उपदेश देते हैं, हे वत्स ! ठहर, व्यर्थके ही अन्य कोलाहलोंसे क्या लाभ ? निश्चिन्त हो छह मास तक एकान्त में, अपने आपका अवलोकन तो कर । देख, हृदयरूपी सरोदरमें पुद्गलसे भिन्न तेजवाली आत्माकी उपलब्धि (प्राप्ति) होतो है, या अनुपलब्धि (अप्राप्ति) ॥३८॥ दोहा-जस जस विषय सुलभ्य भी, ताको नहीं सुहाय । तस तस आतम तत्त्वमें, अनुभव बढ़ता जाय ॥३॥ __ हे वत्स ! स्वात्मसंवित्तिके बढ़नेपर क्या क्या बातें होती हैं, किस रूपमें परिणति होने लगती है, आदि बातोंको सुन निशामयति निश्शेषमिन्द्रजालोपमं जगत् । स्पृहयत्यात्मलाभाय, गत्वान्यत्रानुतप्यते ॥३९॥ अन्वय-योगी निश्शेषं जगत् इन्द्रजालोपमं निशामयति, आत्मलाभाय स्पृहयति अन्यत्र गत्वा अनुतप्यते। १. 'विरम किमपरेणा०'का कितना सुन्दर भावपूर्ण सवैया स्व. कविवर बनारसीदासजीने समयसारनाटकमें कहा है "भैया जगवासी तू उदासी व्हैकै जगतसौं, एक छः महीना उपदेश मेरौ मानु रे । और संकलप विकलपके विकार तचि, बैठकै एकंत मन एक ठोरु आनु रे ॥ तेरो घट-सर तामैं तूही है कमल ताकौ, तूही मधुकर व्है सुवास पहिचानु रे । प्रापति न व्हैहै कछु ऐसो तू विचारतु हैं, सही व्हैहै प्रापति सरूप यौँ ही जानु रे ।।३।। (अजीवद्वार) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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