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________________ पादके नाममे ये विख्यात हए। इसी निष्कर्ष के समर्थनमें अन्य 'शिलालेखोंका की उल्लेख किया जा सकता है, विस्तार भयसे यहाँ ( टिप्पणीमें ) उनकी मात्र क्रमांक संख्याको ही लिखा जा रहा है । आचार्य देवनन्दी ( पूज्यपाद ) के नामके विषयको और भी गहराईको लिये हए जब देखते हैं तो उपरिलिखित बातकी पुष्टि पट्टावली, पुराणादिकोंसे भी होती है। इस नामके ये ही आचार्य हए हों ऐसी बात नहीं है। इनके बाद भी बहुतसे अन्य इसी नामके धारक ग्रन्थ-रचयिता हुए हैं। पर साहित्य-सौष्ठव, विषय-विवेचनकी शैलीकी दृष्टिसे इनकी ( इष्टोपदेशके रचयिताकी) रचनाएँ अनोखी और अनुपमेय हैं । एवं ये महान् वैयाकरण थे अतः भाषापर एवं उसके साधनभूत शब्दोंपर इनका अच्छा आधिपत्य था। जिसकी छटा उनके ग्रन्थों में जहां-तहाँ देखनेको मिलती है। समय निर्णय-जैसा कि लिखा जा चुका है 'पूज्यपाद' नामके कई ग्रन्थनिर्माता हुए हैं। अतः इनके समय के विषयमें विवाद बना रहता है । कोई इन्हें पाणिनिका समकालीन बताते हुए ईस्वी सन् से पांच शताब्दी पूर्वका घोषित करते हैं तो अन्य इन्हें विक्रमकी पांचवीं छठी शताब्दीका उद्घोषित करते हैं। भिन्न-भिन्न विचारकों के विचारोंका मन्थन कर निष्कर्ष रूपमें जो कहा जा सकता है-वह यह है कि राजा विनीत जोकि अविनीतका पुत्र था; तथा विक्रमकी छठी शताब्दीमें शासन करता था। इसके शासन-कालमें इन्होंने इस भारत-भूमिको अपने जन्मसे पवित्र किया था। पूज्यपादको पावन कृतियां या ग्रन्थ-सम्पत्ति पूज्यपादस्वामीने जो कुछ भी ज्ञानार्जन किया या बुद्धि-बलसे जाना, उसे उन्होंने शब्दसाधनके द्वारा गूंथ कर ग्रन्थोंके रूपमें रख दिया। इस दृष्टिसे देखनेपर ज्ञात होता है कि इन्होंने बहुत बड़े पैमानेपर साहित्य-निर्माणकी ओर प्रयत्न किया था । आपका बहुत कुछ साहित्य अनुपलब्ध है, फिर भी जो कुछ वर्तमान में है, वह इस प्रकार है : १. जैनेन्द्रग्याकरण-इसके नामसे ही व्यक्त होता है कि वह व्याकरणशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थ है । 'बोपदेव' नामक महान् वैयाकरणने अपने 'मुग्धबोध' नामक ग्रन्थमें आठ महा व्याकरणोंमें इसका उल्लेख किया है। 'वर्द्धमान' नामक कविने भी देवनन्दि ( पूज्यपाद ) नामके आचार्यका नामस्मरण किया है। देवनन्दिके द्वारा रचित जैनेन्द्रब्याकरणकी महत्ताका एक यह भी प्रमाण है कि पाणिनिके द्वारा निर्मित अष्टाध्यायीके अन्तर्गत गणपाठमें इसका उल्लेख किया गया है। २. सर्वार्थसिद्धि यह श्रीमदुमास्वामिविरचित तत्त्वार्थसूत्र नामक सूत्रात्मक ग्रन्थके अर्थको विशदरूपसे विवेचन करनेवाला महान ग्रन्थ है और इस पर सबसे ज्यादा प्रामाणिक प्राचीन टीका है। ३. समाधितन्त्र या समाधिशतक-सौ श्लोकोंमें निबद्ध यह एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसमें आचार्यश्रीने बड़ी गम्भीरता एवं तात्त्विकानेसे अध्यात्म विषयका विवेचन बहुत ही हृदयग्राही और सुन्दर किया है। इसपर संस्कृतमें अनेक उपयोगी टीकाएँ हई हैं । हिन्दी में भी इसका अर्थ लिखा जा चुका है। (अ) श्र. शि. ले. क्र. सं० १०५ श्र. शि. नि. ले. क्र. सं० ४०। (ब) श्र. शि. नि. ले.क्र. सं. १०८। २. ( क ) यशःकीर्तिर्यशोनन्दी देवनन्दी महामतिः। ___ श्रीपूज्यपादापराख्यो गुणनन्दी गुणाकरः॥ ( नन्दिसंघ पट्टावली ) (ख) कवीनां तीर्थकृदेवः किं तरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् ॥ ( आदिपुराण प्र. पर्व ) ३. प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥ (धनंजयकविकृत नाममाला ) ४. इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्न पिशलीशाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ चशान्दिकाः ।।-घातपाठ: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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