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४. इष्टोपदेश-यह छोटासा ग्रन्थ है जिसको कि पाठकगण अपने हाथमें लिये हए हैं। आप लोग देखेंगे कि इसमें आचार्यश्रीने 'गागरमें सागर भरने की उक्तिको चरितार्थ किया है। यानि थोड़े में बहुत कुछ लिखा गया है। इसकी महत्ता, उपयोगितादिको देख पण्डितप्रवर आशाधरजीने इसपर संस्कृतटीका लिखी जो कि इसमें सन्नद्ध है । वर्तमानमें तो इसके मराठी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं।
५. दशभक्ति-प्रभाचन्द्राचार्यके "संस्कृताः सर्वे भक्तयः पूज्यपादस्वामिकृताः" इस कथनके सहारे कहा जा सकता है कि इनके रचयिता पूज्यपादस्वामी हैं।
ग्रन्थान्तरोंमें जो यहाँ वहाँ उल्लेख मिलते हैं उनके सहारे ज्ञात होता है कि उपरिलिखित उपलब्ध ग्रन्थोंके अतिरिक्त अन्य विविध विषयके ग्रन्थोंका प्रणयन भी इन्होंने किया है । वैद्यक ग्रन्थोंके रचयिता ये थे, ऐसा शिलालेखों, रसरत्नसमुच्चय, ज्ञानार्णवादि ग्रन्थोंके रचयिताओंने ( बसवराज, शुभचन्द्राचार्यने ) अपने-अपने ग्रन्थोंमें उल्लेख किया है, उससे ज्ञात होता है।
पूज्यपादस्वामीने 'जैनाभिषेक' नामक ग्रन्थका भी निर्माण किया था। छन्द-शास्त्र विषयक ग्रन्थकी भ। इन्होंने रचना की थी ऐसा कहा जाता है। धवलाके वेदनाखण्डके उद्धरणसे ज्ञात होता है कि न केवल इनका व्याकरण, वैद्यक, छन्द-शास्त्र, आध्यात्मिक साहित्यपर आधिपत्य था अपितु न्याय-शास्त्रके भी ये एक अधिकारी विद्वान् थे। इन्होंने सारसंग्रह नामके न्याय व सिद्धान्त-सम्बन्धी ग्रन्थका निर्माण किया था । चन्द्रय्य कवि द्वारा कन्नड भाषामें लिखित पूज्यपादचरितको यदि प्रमाणरूपमें ग्रहण किया जाय तो उसके सहारे कहा जा सकता है कि पूज्यपादस्वामीने 'अर्हत्प्रतिष्ठालक्षण' एवं 'शान्त्यष्टक' की भी रचना की थी।
यद्यपि महापुरुषोंके विषयमें जितना भी लिखा जाय वह सब थोड़ा है, किन्तु साहित्यकी, वह भी आध्यात्मिक साहित्यकी सृष्टि करनेवाला, निस्पही, निर्ग्रन्थ, साहित्यिक महापुरुष अपने ढङ्गका अद्वितीय व्यक्ति हुआ करता है । वह सीधी, सरल, हितकारी भाषाका आश्रय ले सच्चे सुहृदके समान मन-मानसमें निहित विचार-मणिमुक्ताओंको सामने रख देता है और कहता है, कि यह स्वानुभूत-अच्छी तरहसे परखी हई विचार-मणियाँ हैं । इनसे मुझे शांति, संतोष और आनन्दको अनुभूति हुई है। चाहो तो तुम भी इनका रसास्वाद कर सकते हो । ऐसे ही महापुरुष पूज्यपादस्वामी थे। इन्होंने स्वान्तःसुखको दृष्टिसे साहित्य-सृष्टि कर संसारके समस्त सत्त्वोंको समुन्नतिका सन्मार्ग सुझाया।
अन्तमें अधिक न लिखते हुए, इनके साहित्यसे जो हृदय पटलपर विचार अंकित होते हैं वे ये हैं-पूज्यपादस्वामी न केवल उच्च दर्जेके संयमी थे अपितु महान् विद्वान् थे । उनका जन्म इस भारत-भूमिमें छठी शताब्दीके पूर्वार्द्धमें हुआ था। उनको व्याकरण, न्याय, सिद्धान्त, वैद्यक, छंदशास्त्र, ज्योतिष, साहित्यका ज्ञान ही नहीं अपितु उनपर अधिकारपूर्ण विवेचना करनेका सामर्थ्य था। उन्होंने एकपक्षीय साहित्यका ही निर्माण नहीं किया। आध्य त्मिक साहित्यको भी सुन्दर शब्दोंमें संजोकर सामने रक्खा। ऐसे साहित्यिक योगी महापुरुषको शत शत नमन हों।
प्रस्तावना समाप्तिके पूर्व उन साहित्यिकोंका भो (पूज्य प्रेमीजी, श्रीमोतीचन्द्रजी कोठारी एम. ए. आदिका) जिनके ग्रन्थोंकी सहायता इस प्रस्तावना लिखनेमें ली है, आभार मानता हूँ और आशा करता हूँ कि वे इस धृष्टताको क्षमा करेंगे कि अनुमति लिये बिना उनके ग्रन्थोंका सहारा ले लिया गया है।
पाठकगण ! मानव जबतक मानवकी दशामें हैं, उसमें अपूर्णताका होना अवश्यंभावी है । अतः न चाहते हुए भी इसमें यदि कुछ त्रुटियाँ रह गई हों तो उसमें मेरी अल्पज्ञताको ही कारण समझें । इतना अवश्य निबेदन है कि यदि महत्त्वपूर्ण कोई त्रुटि खटकती हों तो उसकी सूचना मुझे देवें, जिससे कि यदि अवसर मिला तो अगले संस्करणमें उन्हें अलग कर दिया जावे। जिन जिन सज्जनोंने अपने पद्यानुवादोंको इसमें समाविष्ट कराया है, उनको धन्यवाद देते हुए विराम लेता हूँ । विज्ञेषु किमधिकम् । श्रीनशियांजी-श्रीपार्श्वनाथ जैनमन्दिर इन्दौर,
आप लोगोंका ही अक्षयतृतीया वीर-नि, सं. २४८०
धन्यकुमार जैन
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