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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ श्लोकआचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कर्म कर्महिताबन्धि, जीवो जीवहितस्पृहः । स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे, स्वार्थ को वा न वाञ्छति ॥३१॥ अन्वय-कर्म, कर्महिताबन्धि, जीवः जीवहितस्पृहः स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे स्वार्थ को वा न वाञ्छति । टीका-“कत्थवि बलिओ जीवो, कत्थवि कम्माइ हुँति बलियाइ । जीवस्स य कम्मस्स य, पुव्वविरुद्धाइ वइराइ ॥” इत्यभिधानात्पूर्वोपाजितं बलवत्कर्म कर्मणः स्वस्यैव हितमाबध्नाति जीवस्यौदयिकादिभावमद्भाव्य नवनवकर्माधायकत्वेन स्वसंतानं पुष्णातीत्यर्थः । तथा चोक्तम"जीवकृतं परिणाम, निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पद्गलाः कर्मभावन" ।।१२।। ---पुरुषार्थसिद्धयुपायः "परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वर्भावः। भवति हि निमित्तमात्रं, पौद्गलिकं कर्म तस्यापि"।।१३॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपायः तथा जीवः कालादिलब्ध्या बलवानात्मा जीवस्य स्वस्यैव हितमनन्तसूखहेतुत्वेनोपकारकं मोक्षमाकाङ्क्षति । अत्र दृष्टान्तमाह-स्वस्वेत्यादि निजनिजमाहात्म्यबहतरत्वे सति स्वार्थे स्वस्योपकारकं वस्तु को न वाञ्छति सर्वोप्यभिलषतीत्यर्थः । ततो विद्धि कर्माविष्टो जीवः कर्म संचिनोतीति । यतश्चैवं तत:-॥३१॥ अर्थ-कर्म कर्मका हित चाहते हैं। जीव जीवका हित चाहता है । सो ठीक ही है, अपनेअपने प्रभावके बढ़नेपर कौन अपने स्वार्थको नहीं चाहता। अर्थात् सब अपना प्रभाव बढ़ाते ही रहते हैं। विशदार्थ-कभी जीव बलवान् होता तो कभी कर्म बलवान हो जाते हैं । इस तरह जीव और कर्मोंका पहलेसे (अनादिसे) ही बैर चला आ रहा है। ऐसा कहनेसे मतलब यह निकला कि पूर्वोपार्जित बलवान् द्रव्यकर्म, अपना यानी द्रव्यकर्मका हित करता है अर्थात् द्रव्यकर्म, जीवमें यिक आदि भावोंको पैदा कर नये द्रव्यकर्मोको ग्रहणकर अपनी संतानको पूष्ट किया करता है, जैसा कि अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयपायमें कहा है-"जीवकृतं परिणामं०", "परिणममानस्य." जीवके द्वारा किये गये परिणाम जो कि निमित्तमात्र हैं, प्राप्त करके जीवसे विभिन्न पुद्गल, खुद ब-खुद कमरूप परिणम जाते हैं। और अपने चेतनात्मक परिणामोंसे स्वयं ही परिणमनेवाले जीवके लिये वह पौद्गलिककर्म सिर्फ निमित्त बन जाता है। तथा कालादि लब्धिसे बलवान् हुआ जीव अपने हितको अनन्त सुखका कारण होनेसे उपकार करनेवाले स्वात्मोपलब्धिरूप मोक्षको चाहता है। यहाँपर एक स्वभावोक्ति कही जाती है कि "अपने-अपने माहात्म्यके प्रभावके बढ़नेपर स्वार्थको--अपनी अपनी उपकारक वस्तुको कौन नहीं चाहता ? सभी चाहते हैं ॥३१|| दोहा-कर्म कर्महितकार है, जीव जीवहितकार । निज प्रभाव बल देखकर, को न स्वार्थ करतार ॥३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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