________________
२९-३० ]
इष्टोपदेशः फिर भी भावना करनेवाला खुद शंका करता है, कि यदि कही हुई नीतिके अनुसार मुझे भय आदि न होवे न सही, परन्तु जो जन्मसे लगाकर अपनाई गई थी और भले ही जिन्हें मैंने भेद-भावनाके बलसे छोड़ दिया है, ऐसी देहादिक वस्तुएँ, चिरकालके अभ्यस्त-अभेद संस्कारके वशसे पश्चात्ताप करनेवाली हो सकती हैं कि 'अपनी इन चीजोंको मैंने क्यों छोड़ दिया ?'
भावक-भावना करनेवाला स्वयं ही प्रतिबोध हो सोचता है कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है, कारण कि
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः ।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पहा ॥३०॥ अन्वय-मोहात् सर्वेऽपि पुद्गलाः मया मुहुभुक्तोज्झिताः उच्छिष्टेष्विव तेषु अद्य विज्ञस्य मम का स्पृहा ।
टीका-मोहादविद्यावेशवशादनादिकालं कर्मादिभावेनोपादाय सर्वे पुद्गला मया संसारिणा जीवेन वारं वारं पूर्वमनु भताः पश्चाच्च नीरसीकृत्य त्यक्ताः यतश्चंवं तत उच्छिष्टेष्विव भोजनगन्धमाल्यादिषु स्वयं भुक्त्वा त्यक्तेषु यथा लोकस्य तथा मे संप्रति विज्ञस्य तत्त्वज्ञानपरिणतस्य तेषु फेलाकल्पेषु पुद्गलेषु का स्पृहा ? न कदाचिदपि । वत्स! त्वया मोक्षार्थिना निर्ममत्वं विचिन्तयितव्यम् । अत्राह शिष्यः । अथ कथं ते निबध्यन्त इति । अथेति प्रश्ने केन प्रकारेण पुद्गला जीवेन नियतमुपादीयन्ते इत्यर्थः । गुरुराह-॥३०॥
अर्थ-मोहसे मैंने सभी पुद्गलोंको बार-बार भोगा, और छोड़ा। भोग भोगकर छोड़ दिया। अब जूठनके लिए (मानिन्द) उन पदार्थों में मेरी क्या चाहना हो सकती है ? अर्थात् उन भोगोंके प्रति मेरी चाहना-इच्छा ही नहीं है।
विशदार्थ-अविद्याके आवेशके वशसे अनादिकालसे ही मुझ संसारीजीवने कर्म आदिके रूपमें समस्त पुद्गलोंको बार-बार पहले भोगा और पीछे उन्हें नीरस (कर्मत्वादि रहित) करके छोड़ दिया। जब ऐसा है, तब स्वयं भोगकर छोड़ दिये गये जूठन-उच्छिष्ट भोजन, गन्ध, मालादिकोंमें जैसे लोगोंको फिर भोगनेकी स्पृहा नहीं होती, उसी तरह इस समय तत्त्वज्ञानसे विशिष्ट हुए मेरी उन छिनकी हुई रेंट (नाक) सरीखे पुद्गलोंमें क्या अभिलाषा हो सकती है ? नहीं, नहीं; हरगिज नहीं। भैया ! जब कि तुम मोक्षार्थी हो तब तुम्हें निर्ममत्वकी ही भावना करनी चाहिये ॥३०॥
दोहा-सब पुद्गलको मोहसे, भोग भोगकर त्याग।
___मैं ज्ञानी करता नहीं, उस उच्छिष्टमें राग ॥३०॥ यहाँपर शिष्य कहता है कि वे पुद्गल क्यों बंध जाते हैं ? अर्थात् जीवके द्वारा पुद्गल क्यों और किस प्रकारसे हमेशा बन्धको प्राप्त होते रहते हैं ?
१. फेलाभुक्तसमुज्झितम् । अ. । भुक्त्वा त्यक्तमित्यर्थः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org