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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोकआगममें सुना जाता है, जीवका सम्बन्ध है। उस सम्बन्धके कारण ही जीवका मरण व रोगादिक होते हैं, तथा मरणादि सम्बन्धी बाधाएँ भी होती हैं। तब इन्हें कैसे व किस भावनासे हटाया जावे ? वह भावना करनेवाला स्वयं ही समाधान कर लेता है कि
न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा ।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं, न युवेतानि पुद्गले ॥२९॥ अन्वय-मे मृत्युर्न कुतः भीतिः, मे व्याधिर्न व्यथा कुतः, अहं न बालः, नाहं वृद्धः, न युवा, एतानि पुद्गले।
टीका-न मे एकोऽहमित्यादिना निश्चितात्मस्वरूपस्य मृत्युः प्राणत्यागो नास्ति । चिच्छक्तिलक्षणभावप्राणानां कदाचिदपि त्यागाभावात् । यतश्च मे मरणं नास्ति ततः कुतः कस्मात्मरणकारणात्कृष्णसादीतिर्भयं मम स्यान्न कुतश्चिदपि बिभेमीत्यर्थः । तथा व्याधिर्वातादिदोषवैषम्यं मम नास्ति मर्तसम्बन्धित्वाद्वातादीनाम् । यतश्चैवं ततः कस्मात् ज्वरादिविकारात मम व्यथा स्यात्तथा बालाद्यवस्थो नाहमस्मि ततः कथं बालाद्यवस्थाप्रभवः दुःखैरभिभूयेय अहमिति सामर्थ्यादत्र द्रष्टव्यम् । तहि क्व मृत्युप्रभृतीनि स्युरित्याह-एतानि मृत्युव्याधिबालादीनि पदगले मर्ते देहादावेव संभवन्ति । मूर्तधर्मत्वादमत्तें मयि तेषां नितरामसंभवात् । भूयोऽपि भावक एव स्वयमाशते तर्खेतान्यासाद्य मुक्तानि पश्चात्तापकारीणि भविष्यन्तीति यद्यक्तनीत्या भयादयो मे न भवेयुस्तहि एतानि देहादिवस्तून्यासाद्य जन्मप्रभृत्यात्मात्मीयभावेन प्रतिपद्य मक्तानीदानीं भेदभावनावष्टम्भान्मया त्यक्तानि। चिराभ्यस्ताभेदसंस्कारवशात्पश्चात्तापकराणि किमितीमानि मयात्मीयानि त्यक्तानीत्यनुशयकरीणि मम भविष्यन्ति । अत्र स्वयमेव प्रतिषेधमनुध्यायति' तन्नेति यतः-॥२९।।
अर्थ-मेरी मृत्यु नहीं, तब डर किसका ? मुझे व्याधि नहीं, तब पीड़ा कैसे ? न मैं बालक हूँ, न बूढ़ा हूँ, न जवान हूँ। ये सब बातें (दशाएँ) पुद्गलमें ही पाई जाती हैं।
विशदार्थ- “एकोहं निर्ममः शुद्धः” इत्यादिरूपसे जिसका स्वस्वरूप निश्चित हो गया है, ऐसा जो मैं हूँ, उसका प्राणत्यागरूप मरण नहीं हो सकता, कारण कि चित्शक्तिरूप भाव-प्राणोंका कभी भी विछोह नहीं हो सकता। जब कि मेरा मरण नहीं, तब मरणके कारणभूत काले नाग आदिकोंसे मुझे भय क्यों ? अर्थात् मैं किसीसे भी नहीं डरता हूँ। इसी प्रकार वात, पित्त, कफ आदिकी विषमताको व्याधि कहते हैं, और वह मुझे है नहीं, कारण कि वात आदिक मूर्तपदार्थसे हो सम्बन्ध रखनेवाले हैं । जब ऐसा है, तब ज्वर आदि विकारोंसे मुझे व्यथा-तकलीफ कैसी? उसी तरह मैं बाल, वृद्ध आदि अवस्थावाला भी नहीं हूँ। तब बाल, वृद्ध आदि अवस्थाओंसे पैदा होनेवाले दुःखों-क्लेशोंसे मैं कैसे दुःखी हो सकता हूँ ? अच्छा यदि मृत्यु वगैरह आत्मामें नहीं होते, तो किसमें होते हैं ? इसका जवाब यह है कि 'एतानि पुद्गले' ये मृत्यु-व्याधि और बाल-बद्ध आदि दशाएँ पुद्गल-मूर्त शरीर आदिकोंमें ही हो सकती हैं। कारण कि ये सब मूर्तिमान् पदार्थोके धर्म हैं । मैं तो अमूर्त हूँ, मुझमें वे कदापि नहीं हो सकतीं।
दोहा-मरण रोग मोमैं नहीं, तातें सदा निशंक ।
बाल तरुण नहिं वृद्ध हूँ, ये सब पुद्गल अंक ॥२९॥ १. करोति ।
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