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२७-२८ ]
इष्टोपदेशः
दोहा- - मैं इक निर्मम शुद्ध हूँ, ज्ञानी योगीगम्य । कर्मोदयसे भाव सब, मोतें पूर्ण अगम्य ॥२७॥
फिर भावना करनेवाला सोचता है कि देहादिकके सम्बन्धसे प्राणियों को क्या होता है ? क्या फल मिलता है ? उसी समय वह स्वयं ही समाधान भी करता है कि
दुःखसंदोहभागित्वं संयोगादिह देहिनाम् ।
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त्यजाम्येनं ततः सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिः ||२८||
अन्वय - इह संयोगात् देहिनां दुःखसंदोहभागित्वं ततः एनं सर्वमनोवाक्कायकर्मभिः त्यजामि ।
टीका - दुःखानां संदोहः समूहस्तद्भागित्वं देहिनामिह संसारे संयोगाद्देहादिसंबन्धाद्भवेत् । यतश्चैवं तत एनं संयोगं सर्वं निःशेषं त्यजामि । कैः क्रियमाणं मनोवाक्कायकर्मभिर्मनो वर्गणाद्यालम्बनं रात्मप्रदेशपरिस्पन्दैस्तैरेव त्यजामि । अयमभिप्रायो मनोवाक्कायान्प्रतिपरिस्पन्दमानानात्मप्रदेशान् भावतो निरुन्धामि । तद्भेदाभेदाभ्यासमूलत्वात्सुखदुःखैकफलनिर्वृतिसंसृत्योः । तथा चोक्तम्
"स्वबुद्धया यत्तु गृह्णीयात्कायवाक्चेतसां त्रयम् । संसारस्तावदेतेषां तदाभ्यासेन निर्वृतिः” ॥६२॥
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पुनः स एवं विमृशति - पुद्गलेन किल संयोगस्तदपेक्षा मरणादयस्तद्व्यथाः कथं परिहियन्त इति । पुद्गलेन देहात्मना मूर्त्तद्रव्येण सह किल आगमे श्रूयमाणो जीवस्य संबन्धोऽस्ति तदपेक्षाश्च पुद्गलसंयोग निमित्ते मरणादयो मृत्युरोगादयः संभवन्ति । तद्यथा मरणादयः संभवन्ति । मरणादिसंबन्धिन्यो बाधाः । कथं, केन भावनाप्रकारेण मया परिह्रियन्ते । तदभिभवः कथं निवार्यंत इत्यर्थः । स्वयमेव समाधत्ते ; - ॥२८॥
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अर्थ - इस संसार में देहादिकके सम्बन्धसे प्राणियोंको दुःख- समूह भोगना पड़ता है- अनन्त क्लेश भोगने पड़ते हैं, इसलिये इस समस्त सम्बन्धको जो कि मन, वचन, कायकी क्रियासे हुआ करते हैं, मनसे, वचनसे, कायसे छोड़ता हूँ । अभिप्राय यह है कि मन, वचन, कायका आलम्बन लेकर चंचल होनेवाले आत्माके प्रदेशोंको भावोंसे रोकता हूँ । 'आत्मा, मन वचन कायसे भिन्न है,' इस प्रकार के अभ्यास से सुखरूप एक फलवाले मोक्षकी प्राप्ति होती है और मन, वचन, कायसे आत्मा अभिन्न है, इस प्रकार के अभ्याससे दुःखरूप एक फलवाले संसारकी प्राप्ति होती है, जैसा कि पूज्यपादस्वामीने समाधिशतक में कहा है - " स्वबुद्धया यत्तु गृह्णीयात्."
- समाधिशतकम्
"जबतक शरीर, वाणी और मन इन तीनोंको ये 'स्व हैं - अपने हैं' इस रूप में ग्रहण करता रहता है । तबतक संसार होता है और जब इनसे भेद-बुद्धि करनेका अभ्यास हो जाता है, तब मुक्ति हो जाती है |" ||२८||
दोहा -- प्राणी जा संयोगतें, दुःख समूह लहात । या मन वच काय युत, हूँ तो सर्व तजात ॥२८॥
फिर भावना करनेवाला सोचता है कि पुद्गल - शरीरादिकरूपी मूर्तद्रव्यके साथ जैसा कि
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