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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ श्लोकमैं अकिंचन हूँ, मेरा कुछ भी नहीं, बस ऐसे होकर बैठे रहो और तीन लोकके स्वामी हो जाओ । यह तुम्हें बड़े योगियोंके द्वारा जाने जा सकने लायक परमात्माका रहस्य बतला दिया है। और भी कहा है--"रागी बध्नाति कर्माणि." रागी जीव कर्मोंको बाँधता है। रागादिसे रहित हुआ जीव मुक्त हो जाता है। बस यही संक्षेपमें बंध मोक्ष विषयक जिनेन्द्रका उपदेश है । जबकि ऐसा है, तब हरएक प्रयत्नसे व्रतादिकोंमें चित्त लगाकर अथवा मन, वचन, कायकी सावधानतासे निर्ममताका ही ख्याल रखना चाहिये "मत्तः कायादयो भिन्नास्०" __ "शरीरादिक, मुझसे भिन्न हैं, मैं भी परमार्थसे इनसे भिन्न हूँ, न मैं इनका कुछ हूँ, न मेरे ही ये कुछ हैं।" इत्यादिक श्रुतज्ञानकी भावनासे मुमुक्षुको भावना करनी चाहिये । आत्मानुशासनमें गुणभद्रस्वामीने कहा है। -"निवृत्ति भावयेत्०" जबतक मुक्ति नहीं हुई तबतक परद्रव्योंसे हटनेकी भावना करे। जब उसका अभाव हो जायगा, तब प्रवृत्ति ही न रहेगी । बस वही अविनाशी पद जानो ॥२६॥ दोहा-मोही बांधत कर्मको, निर्मोही छुट जाय । ___यार्ते गाढ़ प्रयत्नसे, निर्ममता उपजाय ॥२६॥ यहाँपर शिष्य कहता है कि इसमें निर्ममता कैसे होवे ? इसमें निर्ममताके चितवन करनेके उपायोंका सवाल किया गया है । अब आचार्य उसकी प्रक्रियाको ‘एकोऽहं निर्ममः०" से प्रारंभ कर "मम विज्ञस्य का स्पृहा." तकके श्लोकों द्वारा बतलाते हैं। एकोऽहं निर्ममः शुद्धो, ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः । बाह्याः संयोगजा भावा, मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥२७॥ अन्वय-अहं एकः निर्ममः शुद्धः ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः संयोगजाः सर्वेऽपि भावा मत्तः सर्वथा बाह्यः । टीका-द्रव्यार्थिकनयादेकेः पूर्वापरपर्यायानुस्यूतो निर्ममो ममेदमहमस्येत्यभिनिवेशशून्यः शुद्धः शुद्धनया देशाद् द्रव्यभावकर्मनिर्मुक्तो ज्ञानी स्वपरप्रकाशस्वभावो योगीन्द्र गोचरोऽनन्तपर्यायविशिष्टतया केवलिनो शुद्धोपयोगमात्रमयत्वेन श्रुतकेवलिनां च संवेद्योहमात्मास्मि ये तु संयोगाद् द्रव्यकर्मसंबन्धाद्याता मया सह संबन्धं प्राप्ता भावा देहादयस्ते सर्वेऽपि मत्तो मत्सकाशात्सर्वथा सर्वेण द्रव्यादिप्रकारेण बाह्या भिन्नाः सन्ति पुनर्भावक एवं विमृश ति संयोगात्किमिति देहादिभिः संबन्धाद्देहिनां किं फलं स्यादित्यर्थः । तत्र स्वयमेव समाधते-॥२७।। ____ अर्थ-मैं एक, ममता रहित, शुद्ध, ज्ञानी, योगीन्द्रोंके द्वारा जानने लायक हूँ। संयोगजन्य जितने भी देहादिक पदार्थ हैं, वे मुझसे सर्वथा बाहिरी-भिन्न हैं। विशदार्थ-मैं द्रव्याथिकनयसे एक हूँ, पूर्वापर पर्यायोंमें अन्वित हूँ। निर्मम हूँ--'मेरा यह' 'मैं इसका' ऐसे अभिनिवेशसे रहित हूँ। शुद्ध हूँ, शुद्धनयकी अपेक्षासे, द्रव्यकर्म भावकर्मसे रहित हूँ, केवलियोंके द्वारा तो अनन्त पर्याय सहित रूपसे और श्रुतकेवलियोंके द्वारा शुद्धोपयोगमात्ररूपसे जानने में आसकने लायक हूँ, ऐसा मैं आत्मा हूँ, और जो संयोगसे-द्रव्यकर्मोंके सम्बन्धसे प्राप्त हुए देहादिक पर्याय हैं, वे सभी मुझसे हर तरहसे (द्रव्यसे गुणसे पर्यायसे) बिल्कुल जुदे हैं ॥२७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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