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________________ ३१-३२-३३ ] इष्टोपदेशः इसलिये समझो कि कर्मोंसे बँधा हुआ प्राणी कर्मोका संचय किया करता है। जबकि ऐसा है तब-- परोपकृतिमुत्सृज्य, स्वोपकारपरो भव । उपकुर्वन्परस्याज्ञो, दृश्यमानस्य लोकवत् ॥३२॥ अन्वय---परोपकृति उत्सृज्य स्वोपकारपरो भव दृश्यमानस्य परस्य उपकुर्वन् अज्ञः लोकवत् । टोका-परस्य कर्मणो देहादेर्वा अविद्यावशात् क्रियमाणमुपकारं विद्याभ्यासेन त्यक्त्वात्मानुग्रहप्रधानो भव त्वम् । किं कुर्वन्सन्, उपकुर्वन् । कस्य, परस्य सर्वथा स्वस्माद्बाह्यस्य दृश्यमानस्येन्द्रियैरनुभूयमानस्य देहादेः । किविशिष्टो यतस्त्वं अज्ञस्तत्त्वानभिज्ञः किंवल्लोकवत । यथा लोकः परं परत्वेनाजानंस्तस्योपकुर्वन्नपि तं तत्त्वेन ज्ञात्वा तदुपकारं त्यक्त्वा स्वोपकारपरो भवत्येवं त्वमपि भवेत्यर्थः। अथाह शिष्यः । कथं तयोविशेष इति केनोपायेन स्वपरयो दो विज्ञायत । तद्धि ज्ञातुश्च किं स्यादित्यर्थः । गुरुराह-॥३२॥ अर्थ-परके उपकार करनेको छोड़कर अपने उपकार करने में तत्पर हो जाओ। इंद्रियोंके द्वारा दिखाई देते हुए शरीरादिकोंका उपकार करते हुए तुम अज्ञ (वास्तविक वस्तुस्थितिको न जाननेवाले) हो रहे हो । तुम्हें चाहिये कि दुनियाँकी तरह तुम भी अपनी भलाई करने में लगो। विशदार्थ--पर कहिये कर्म अथवा शरीरादिक, इनका अविद्या-अज्ञान अथवा मोहके वशसे जो उपकार किया जा रहा है, उसे विद्या सम्यग्ज्ञान अथवा वीतरागताके अभ्याससे छोड़कर प्रधानतासे अपने (आत्माके) उपकार करनेमें तत्पर हो जाओ। तुम सर्वथा अपने (आत्मा) से बाह्य इन्द्रियोंके द्वारा अनुभवमें आनेवाले इन शरीरादिकोंकी रक्षा करना आदि रूप उपकार करनेमें लगे हुए हो । इसलिये मालूम पड़ता है कि तुम अज्ञ ( वस्तुओंके वास्तविक स्वरूपसे अजान ) हो । जैसे दुनियाके लोग जबतक दूसरेको दूसरे रूपमें नहीं जानते, तबतक उनका उपकार करते हैं । परन्तु ज्यों ही वे अपनेको अपना और दूसरेको दूसरा जानते हैं, उनका (दूसरोंका) उपकार करना छोड़कर अपना उपकार करनेमें लग जाते हैं। इसी प्रकार तुम भी तत्त्वज्ञानी बनकर अपनेकी स्वाधीन शुद्ध बनाने रूप आत्मोपकार करनेमें तत्पर हो जाओ ॥३२॥ दोहा-प्रगट अन्य देहादिका, मूढ करत उपकार । सज्जनवत् या मूल को, तज कर निज उपकार ॥३२॥ ___ यहाँपर शिष्य कहता है कि किस उपायसे अपने और परमें विशेषता (भेद) जानी जाती है, और उसके जाननेवालेको क्या होगा ? किस फलको प्राप्ति होगी ? आचार्य कहते हैं गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्तेः स्वपरान्तरम् । जानाति यः स जानाति, मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ॥३३॥ अन्वय-यः गुरूपदेशात् अभ्यासात् संवित्तेः स्वपरान्तरं जानाति स मोक्षसौख्यं निरन्तरं जानाति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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