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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
श्लोक
इति सांख्यमतं बुद्धयादिगुणोज्झितः पुमानिति योगमतं च प्रत्युक्तम् । प्रतिध्वस्तश्च नैरात्म्यवादो' बोद्धानाम् । पुनः कीदृशः, अत्यन्तसौख्यवान् अनन्तसुखस्वभावः । एतेन सांख्ययोगतन्त्रं प्रत्याहतम् । पुनरपि कीदृशस्तनुमात्रः स्वोपात्तशरीरपरिमाणः । एतेन व्यापक वटकणिकामात्रं चात्मानं वदन्तौ प्रत्याख्यातौ । पुनरपि कीदृशः, निरत्ययः द्रव्यरूपतया नित्यः । एतेन गर्भादिमरणपर्यन्तं जीवं प्रतिजानानश्चार्वाको निराकृतः । ननु प्रमाण सिद्धे वस्तुन्येवं गुणवादः श्रेयान्न चात्मनस्तथा प्रमाणसिद्धत्वमस्तीत्यारेकायामाह-स्वसंवेदनसुव्यक्त इति । "वेद्यत्वं वेदकत्वं च, यत् स्वस्य स्वेन योगिनः । तत् स्वसंवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभवं दृढम् ॥ १६१ ॥
-तत्त्वानुशासनम् ।। इत्येवंलक्षणस्वसंवेदनप्रत्यक्षेण सकलप्रमाणधुर्येण सुष्ठु उक्तैः गुणैः संपूर्णतया व्यक्तः विशदवयानुभूतो योगिभिः स्वेकदेशेन ।
अत्राह शिष्यः-यद्येवमात्मास्ति, तस्योपास्तिः कथमिति स्पष्टमात्मसेवोपायप्रश्नोऽयम् । गुरुराह
अर्थ-आत्मा लोक और अलोकको देखने जाननेवाला, अत्यन्त अनन्त सुख स्वभाववाला, शरीरप्रमाण, नित्य, स्वसंवेदनसे तथा कहे हुए गुणोंसे योगिजनों द्वारा अच्छी तरह अनुभवमें आया हुआ है।
विशदार्थ-जीवादिक द्रव्योंसे घिरे हुए आकाशको लोक और उससे अन्य सिर्फ आकाशको अलोक कहते हैं। उन दोनोंको विशेषरूपसे उनके समस्त विशेषोंमें रहते हुए जो जानने देखनेवाला है, वह आत्मा है। ऐसा कहनेसे "ज्ञानशून्यचैतन्यमात्रमात्मा" ज्ञानसे शून्य सिर्फ चैतन्यमात्र ही आत्मा है, ऐसा सांख्यदर्शन तथा "बुद्धयादिगुणोज्झितः पुमान्” बुद्धि सुख दुःखादि गुणोंसे रहित पुरुष है, ऐसा योगदर्शन खंडित हुआ समझना चाहिये । और बौद्धोंका 'नैरात्म्यवाद' भी खंडित हो गया। फिर बतलाया गया है कि 'वह आत्मा सौख्यवान् अनन्त सुखस्वभाववाला है'। ऐसा कहनेसे सांख्य और योगदर्शन खंडित हो गया। फिर कहा गया कि वह "तनुमात्रः” 'अपने द्वारा ग्रहण किये गये शरीर-परिमाणवाला है। ऐसा कहनेसे जो लोग कहते हैं कि 'आत्मा व्यापक है' अथवा 'आत्मा वटकणिका मात्र है' उनका खंडन हो गया। फिर वह आत्मा “निरत्ययः" 'द्रव्य. रूपसे नित्य है ऐसा कहनेसे, जो चार्वाक यह कहता था कि "गर्भसे लगाकर मरणपर्यन्त ही जीव रहता है", उसका खण्डन हो गया।
यहाँपर किसीकी यह शंका है कि प्रमाणसिद्ध वस्तुका ही गुण-गान करना उचित है। परन्तु आत्मामें प्रमाणसिद्धता ही नहीं है-वह किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है। तब ऊपर कहे हुए विशेषणोंसे किसका और कैसा गुणवाद ? ऐसी शंका होनेपर आचार्य कहते हैं कि वह आत्मा 'स्वसंवेदन-सुव्यक्त है', स्वसंवेदन नामक प्रमाणके द्वारा अच्छी तरह प्रगट है । "वेद्यत्वं वेदकत्वं च०"
___“जो योगीको खुदका वेद्यत्व व खुदके द्वारा वेदकत्व होता है, बस वही स्वसंवेदन कहलाता है। अर्थात् उसीको आत्माका अनुभव व दर्शन कहते हैं । अर्थात् जहाँ आत्मा ही ज्ञेय और आत्मा ही ज्ञायक होता है, चैतन्यकी उस परिणतिको स्वसंवेदन प्रमाण कहते हैं। उसीको आत्मानुभव व आत्मदर्शन भी कहते हैं। इस प्रकारके स्वरूपवाले स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष ( जो कि सब प्रमाणोंमें मुख्य या अग्रणी प्रमाण है ) से तथा कहे हुए गुणोंसे सम्पूर्णतया प्रकट वह आत्मा योगिजनोंको एकदेश विशदरूपसे अनुभवमें आता है" ॥ २१ ॥
१. अभावात्मको मोक्षः । २. ब्रुवन् । ३. प्रमाणेन । ४. मुख्येन ।
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