SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०-२१ ] इष्टोपदेशः २३ __ अन्वय-इतो दिव्यश्चिन्तामणिः इतश्च पिण्याकखण्डकम् चेत् ध्यानेन उभे लभ्ये, विवेकिनः क्व आद्रियन्ताम्। टोका-अस्ति । कोऽसौ, चिन्तामणिः चिन्तितार्थप्रदो रत्नविषः। किविशिष्टो, दिव्यो देवेनाधिष्ठितः। क्व, इतः अस्मिन्नेकस्मिन् पक्षे । इतश्चान्यस्मिन् पक्षे पिण्याकखण्डकं कुत्सितमल्पं वा खलखण्डकमस्ति । एते च उभे द्वे अपि यदि ध्यानेन लभ्यते । अवश्यं लभ्येते तहि कथय क्व द्वयोर्मध्ये क तरस्मिन्नेकस्मिन् विवेकिनो लोभच्छेदविचारचतुरा आद्रियन्ताम आदरं कुर्वन्तु । तदैहिकफलाभिलाषं त्यक्त्वा आमत्रिकफलसिद्धयर्थमेवात्मा ध्यातव्यः । उक्तं च"यद्धयानं रौद्रमात वा, यदैहिकफलार्थिनाम् । तस्मादेतत्परित्यज्य, धयं शुक्लमुपास्यताम्" ॥२२०॥ -तत्त्वानुशासनं अथैवमुद्बोधितश्रद्धानो विनेयः पृच्छति, स आत्मा कीदृश इति यो युष्माभिर्ध्यातव्यतयोपदिष्टः पुमान् स किंस्वरूप इत्यर्थः । गुरुराह अर्थ-इसी ध्यानसे दिव्य चिंतामणि मिल सकता है, इसीसे खलीके टुकड़े भी मिल सकते हैं । जब कि ध्यानके द्वारा दोनों मिल सकते हैं, तब विवेकी लोग किस ओर आदरबुद्धि करेंगे? विशदार्थ-एक तरफ तो देवाधिष्ठित चिन्तित अर्थको देनेवाला चिन्तामणि और दूसरो ओर बुरा व छोटासा खलीका टुकड़ा, ये दोनों भी यदि ध्यानके द्वारा अवश्य मिल जाते हैं, तो कहो, दोनोंमेंसे किसकी ओर विवेकी लोभके नाश करनेके विचार करनेमें चतुर-पुरुष आदर करेंगे? इसलिये इसलोक सम्बन्धी फल कायकी नीरोगता आदिकी अभिलाषाको छोड़कर परलोक सम्बन्धी फलकी सिद्धि-प्राप्तिके लिये ही आत्माका ध्यान करना चाहिये। कहा भी है कि "यद् ध्यानं रौद्रमातं वा०" ॥ "वह सब रौद्रध्यान या आर्तध्यान है, जो इसलोक सम्बन्धी फलके चाहनेवालेको होता है। इसलिये रौद्र व आर्तध्यानको छोड़कर धर्म्यध्यान व शुक्लध्यानकी उपासना करनी चाहिये।" दोहा-इत चितामणि है महत्, उत खल टूक असार। ___ध्यान उभय यदि देत बुध, किसको मानत सार ॥२०॥ अब वह शिष्य जिसे समझाये जानेसे श्रद्धान उत्पन्न हो रहा है, पूछता है कि जिसे आपने ध्यान करने योग्य रूपसे बतलाया है, वह कैसा है ? उस आत्माका क्या स्वरूप है ? आचार्य कहते हैं स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो . निरत्ययः । अत्यन्तसौख्यवानात्मा, लोकालोकविलोकनः ॥ २१ ॥ अन्वय-आत्मा, लोकालोकविलोकनः अत्यन्तसौख्यवान् तनुमात्रः निरत्ययः स्वसंवेदनसुव्यक्तः ( अस्ति)। टीका-अस्ति । कोऽसौ, आत्मा। कीदशः, लोकालोकविलोकनः लोको जीवाद्याकीर्णमाकाशं ततोऽन्यदलोकः, तौ विशेषेण अशेषविशेषनिष्ठतेया लोकते पश्यति जानाति । एतेन "ज्ञानशुन्यं चैतन्यमात्रमात्मा" १. परिपूर्णतया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy