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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम श्लोक__ अत्राह शिष्यः-तर्हि कायस्योपकारश्चिन्त्यते इति भगवन् यद्येवं तर्हि "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" इत्यभिधानात्तस्यापायनिरासाय यत्नः क्रियते। न च कायस्यापायनिरासो दुष्कर इति वाच्यम्, ध्यानेन तस्यापि सुकरत्वात् । तथा चोक्तम्"यदात्रिकं फलं किंचिन्फलमामुत्रिकं च यत् । एतस्य द्वितयस्यापि, ध्यानमेवाग्रकारणम् ॥" २१७॥ -तत्त्वानुशासनं "झाणस्स ण दुल्लह किंपीति" च । अत्र गुरुः प्रतिषेधमाह-तन्नेति । ध्यानेन कायस्योपकारो न चिन्त्य इत्यर्थः । __ अर्थ-जो जीव ( आ मा ) का उपकार करनेवाले होते हैं, वे शरीरका अपकार ( बुरा) करनेवाले होते हैं । जो चीजें शरीरका हित या उपकार करनेवाली होती हैं, वही चीजें आत्माका अहित करनेवाली होती हैं। विशदार्थ-देखो जो अनशनादि तपका अनुष्ठान करना, जीवके पुराने व नवीन पापोंको नाश करनेवाला होने के कारण, जीवके लिये उपकारक है, उसकी भलाई करनेवाला है, वही आचरण या अनुष्ठान शरीरमें ग्लानि शिथिलतादि भावोंको कर देता है, अतः उसके लिये अपकारक है, उसे कष्ट व हानि पहुँचानेवाला है । और जो धनादिक हैं, वे भोजनादिकके उपयोग द्वारा क्षुधादिक पीडाओंको दूर करने में सहायक होते हैं। अतः वे शरीरके उपकारक हैं। किन्तु उसी धन नादिक पापपूर्वक होता है। व पापपूर्वक होनेसे दुर्गतिके दुःखोंकी प्राप्तिके लिये कारणीभूत है। अतः वह जीवका अहित या बुरा करनेवाला है। इसलिये यह समझ रक्खो कि धनादिकके द्वारा जीवका लेशमात्र भी उपकार नहीं हो सकता । उसका उपकारक तो धर्म ही है। उसीका अनुष्ठान करना चाहिये। दोहा-आतम हित जो करत है, सो तनको अपकार । ___जो तनका हित करत है, सो जियको अपकार ॥ १९ ॥ अथवा कायका हित सोचा जाता है, अर्थात् कायके द्वारा होनेवाले उपकारका विचार किया जाता है। देखिये कहा जाता है कि "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" शरीर धर्म-सेवनका मुख्य साधन-सहारा है । इतना ही नहीं, उसमें यदि रोगादिक हो जाते हैं, तो उनके दूर करनेके लिये प्रयत्न भी किये जाते हैं। कायके रोगादिक अपायोंका दूर किया जाना मुश्किल भी नहीं है, कारण कि ध्यानके द्वारा वह ( रोगादिकका दूर किया जाना ) आसानीसे कर दिया जाता है, जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है-“यदात्रिकं फलं किंचित्" ।। १९ ॥ जो इस लोक सम्बन्धी फल हैं, या जो कुछ परलोक सम्बन्धी फल हैं, उन दोनों ही फलोंका प्रधान कारण ध्यान ही है। मतलब यह है कि "झाणस्स ण दुल्लहं किंपि" ध्यानके लिये कोई भी व कुछ भी दुर्लभ नहीं है, ध्यानसे सब कुल मिल सकता है। इस विषयमें आचार्य निषेध करते हैं कि ध्यानके द्वारा कायका उपकार नहीं चितवन करना चाहिये इतश्चिन्तामणिदिव्य इतः पिण्याकखण्डकम् । ध्यानेन चेभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिनः ॥२०॥ १. रोगाद्युपविनाशे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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