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________________ १६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दोहा - कठिन प्राप्त संरक्ष्य ये, नश्वर धन पुत्रादि । इनसे सुखको कल्पना, जिमि घृतसे ज्वर व्याधि ॥ १३ ॥ शंका- फिर भी शिष्य पूछता है कि बड़े आश्चर्यकी बात है कि जब मुश्किलोंसे कमायो जाती' आदि हेतुओंसे धनादिक सम्पत्ति दोनों लोकोंमें दुःख देनेवाली है, तब ऐसी सम्पत्तिको लोग छोड़ क्यों नहीं देते ? आचार्य उत्तर देते हैं विपत्तिमात्मनो मूढः, दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत् परेषामिव नेक्षते । ।। १४ ।। अन्वय – दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तर तरुस्थवत् मूढः परेषामिव आत्मनो विपत्ति नेक्षते । टीका- नेक्षते न पश्यति । कोऽसौ मूढो धनाद्यासक्त्या लुप्तविवेको लोकः । कां विपत्ति चौरादिना क्रियमाणां धनापहाराद्यापदाम् । कस्य, आत्मनः स्वस्य । केषामिव परेषामिव । यथा इमे विपदा आक्रम्यन्ते तथा माक्रन्तव्य इति न विवेचयतीत्यर्थः । क इव प्रदह्यमानः दावानलज्वालादिभिर्भस्मीक्रियमाणैर्मुगैर्हरिणादिभिराकीर्णस्य संकुलस्य वनस्यान्तरे मध्ये वर्तमानं तरुं वृक्षमारूढो जनो यथा आत्मनो मृगाणामिव विपत्ति न पश्यति । पुनराह शिष्यः कुत एतदिति, भगवन् ! कस्माद्धेतोरिदं सन्निहिताया अपि विपदोऽदर्शनं जनस्य । गुरुराह— लोभादिति वत्स ! धनादिगार्थ्यात् पुरोवर्तिनीमप्यापदं धनिनो न पश्यन्ति । यतः Jain Education International [ श्लोक अर्थ - जिसमें अनेकों हिरण दावानलकी ज्वालासे जल रहे हैं, ऐसे जंगलके मध्य में वृक्षपर बैठे हुए मनुष्य की तरह यह संसारी प्राणी दूसरोंकी तरह अपने ऊपर आनेवाली विपत्तियोंका ख्याल नहीं करता है । विशदार्थ - धनादिक में आसक्ति होनेके कारण जिसका विवेक नष्ट हो गया है, ऐसा यह मूढ़ प्राणी चोरादिकके द्वारा की जानेवाली, धनादिक चुराये जाने आदिरूप अपनी आपत्तिको नहीं देखता है, अर्थात् वह यह नहीं ख्याल करता कि जैसे दूसरे लोग विपत्तियोंके शिकार होते हैं, उसी तरह मैं भी विपत्तियोंका शिकार बन सकता हूँ । इस वनमें लगी हुई यह आग इस वृक्षको और मुझे भी जला देगी। जैसे ज्वालानलकी ज्वालाओंसे जहाँ अनेक मृगगण झुलस रहे हैं-जल रहे हैं, उसी वनके मध्य में मौजूद वृक्षके ऊपर चढ़ा हुआ आदमी यह जानता है कि ये तमाम मृगगण ही घबरा रहे हैं-छटपटा रहे हैं, एवं मरते जा रहे हैं, इन विपत्तियों का मुझसे कोई संबंध नहीं है, मैं तो सुरक्षित हूँ । विपत्तियोंका सम्बन्ध दूसरोंकी सम्पत्तियोंसे है, मेरी सम्पत्तियों से नहीं है ॥ १४ ॥ दोहा -- परकी विपदा देखता, अपनी देखे नाहिं | जलते पशु जा वन विषै, जड़ तरुपर ठहराहि ॥ १४ ॥ फिर भी शिष्यका कहना है कि हे भगवान् ! क्या कारण है कि लोगोंको निकट आई हुई भी विपत्तियाँ दिखाई नहीं देती ? आचार्य जवाब देते हैं -- "लोभात्" लोभके कारण, हे वत्स ! धनादिककी गृद्धता - आसक्तिसे धनी लोग सामने आई हुई भी विपत्तिको नहीं देखते हैं, कारण कि— १. अग्रतः स्थितामपि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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