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१४-१६]
इष्टोपदेशः
आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं, कालस्य निर्गमम् ।
वाञ्छतां धनिनामिष्टं, जीवितात्सुतरां धनम् ॥१५॥ अन्वय-आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गमं वाञ्छतां धनिनां जीविताद् धनं सुतरां
टीका-वर्तते । कि तद्धनं । किविशिष्टं, इष्टम भिमतं । कथं, सुतरां अतिशयेन कस्माज्जीविताप्राणेभ्यः । केषां, धनिनां । किं कुर्वतां, वाञ्छतां । कं, निर्गमं अतिशयेन गमनं । कस्य, कालस्य । किविशिष्ट, आयुरित्यादि । आयुःक्षयस्य वृद्धयुत्कर्षस्य च कालान्तरवर्धनस्य कारणम् । अयमों, धनिनां तथा जीवितव्यं नेष्टं यथा धनं । कथमन्यथा जीवितक्षयकारणमपि धनवृद्धिहेतं कालनिर्गमं वाञ्छन्ति । अतो धिग्धनम्, एवंविधव्यामोहहेतुत्वात् ॥१५॥
अत्राह शिष्यः-कथं धनं निन्द्यं येन पुण्यमुपायंते इति पात्रदानदेवार्चनादिक्रियायाः पुण्यहेतोधनं विना असंभवात् पुण्यसाधनं धनं कथं निन्द्यं, किं तर्हि प्रशस्यमेवातो यथाकथंचिद्धनमुपायं पात्रादौ च नियुज्य सुखाय पुण्यमुपार्जनीयमित्यत्राह
अर्थ-कालका व्यतीत होना, आयुके क्षयका कारण है और कालान्तरके माफिक ब्याजके बढ़नेका कारण है, ऐसे कालके व्यतीत होनेको जो चाहते हैं, उन्हें समझना चाहिये कि अपने जीवनसे धन ज्यादा इष्ट है।
विशदार्थ-मतलब यह है कि धनियोंको अपना जीवन उतना इष्ट नहीं, जितना कि धन । धनी चाहता है कि जितना काल बीत जायगा, उतनी ही ब्याजकी आमदनी बढ़ जायगी। वह यह ख्याल नहीं करता कि जितना काल बोत जायगा, उतनी ही मेरी आयु ( जीवन ) घट जायगी । वह धनवृद्धिके ख्यालमें जीवन ( आयु ) के विनाशकी ओर तनिक भी लक्ष्य नहीं देता। इसलिये मालूम होता है कि धनियोंको जीवन ( प्राणों) की अपेक्षा धन ज्यादा अच्छा लगता है। इस प्रकारके व्यामोहका कारण होनेसे धनको धिक्कार है ।।१५।।
__दोहा-आयु क्षय धनवृद्धिको, कारण काल प्रमान ।
चाहत हैं धनवान धन, प्राणनितें अधिकान ॥१५॥ यहाँपर शिष्यका कहना है कि धन जिससे पुण्यका उपार्जन किया जाता है, वह निंद्य-निंदाके योग्य क्यों है ? पात्रोंको दान देना, देवकी पूजा करना, आदि क्रियायें पुण्यकी कारण हैं, वे सब धनके बिना हो नहीं सकती। इसलिये पुण्यका साधनरूप धन निंद्य क्यों ? वह तो प्रशंसनीय हो है । इसलिये जैसे बने वैसे धनको कमाकर पात्रादिकोंमें देकर सुखके लिये पुण्य संचय करना चाहिये । इस विषयमें आचार्य कहते हैं
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः।
स्वशरीरं स पङ्केन, स्नास्यामीति विलिम्पति ॥१६॥ अन्वय-यः अवित्तः श्रेयसे त्यागाय वित्तं संचिनोति स "स्नास्यामि" इति स्वशरीरं पङ्केन विलिम्पति ।
टोका-योऽवित्तो निर्धनः सन् धनं संचिनोति सेवाकृष्यादिकर्मणोपार्जयति । किं तद्वित्तं धनं । कस्मै, त्यागाय पात्रदानदेवपूजाद्यर्थ, त्यागायेत्यस्य देवपूजाद्युपलक्षणार्थत्वात् । कस्मै त्यागः, श्रेयसे अपूर्वपुण्याय
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