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________________ १२-१३ इष्टोपदेशः इसलिये समझो कि एकमात्र दुःखोंकी कारणीभूत विपत्तियोंका कभी भी अन्तर न पड़नेके कारण यह संसार अवश्य ही विनाश करने योग्य है। अर्थात् इसका अवश्य नाश करना चाहिए ।। १२ ।। दोहा-जबतक एक विपद टले, अन्य विपद बहु आय । पदिका जिमि घटियंत्र में, बार बार भरमाय ॥१२॥ फिर शिष्यका कहना है कि भगवन् ! सभी संसारी तो विपत्तिवाले नहीं हैं, बहुतसे सम्पत्तिवाले भी दीखनेमें आते हैं । इसके विषयमें आचार्य कहते हैं दुर]नासुरक्ष्येण, नश्वरेण धनादिना । स्वस्थंमन्यो जनः कोऽपि, ज्वरवानिव सर्पिषा ॥ १३ ॥ अन्वय-ज्वरवान् सर्पिषा इव कोऽपि जनः दुर]न असुरक्ष्येण धनादिना स्वस्थंमन्यः ( भवति )। टीका-भवति । कोऽसौ, जनो लोकः । किंविशिष्टः, कोऽपि निविवेको न सर्वः । किविशिष्टो भवति, स्वस्थंमन्यः स्वस्थमात्मानं मन्यमानो अहं सुखीति मन्यत इत्यर्थः । केन कृत्वा, धनादिना द्रव्यकामिन्यादीष्टवस्तुजातेन । किंविशिष्टेन, दुरज्येन अपायबहुलत्वात् दुर्ध्यानावेशाच्च दुःखेन महता कष्टेनार्जित इति दुरज्येन । येण दुस्त्राणेन यत्ततो रक्ष्यमाणस्याप्यपायस्यावश्यंभावित्वात् । तथा नश्वरेण रक्ष्यमाणस्यापि विनाशसंभवादशाश्वतेन । अत्र दृष्टान्तमाह-ज्वरेत्यादि । इवशब्दो यथार्थे । यथा कोऽपि मुग्धो ज्वरवान अतिशयेन मतेविनाशात् सामज्वरातः सर्पिषा घृतेन पानाधुपयुक्तेन स्वस्थंमन्यो भवति निरामयमात्मानं मन्यते । ततो बुद्धयस्व दुरुपायंदूरक्षणभङ्गुरद्रव्यादिना दुःखमेव स्यात् । उक्तं च "अर्थस्योपार्जने दुःखमर्जितस्य च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थं दुःखभाजनम् ॥" भूयोपि विनेयः पृच्छति एवंविधां संपदां कथं न त्यजतीति । अनेन दुरर्जत्वादिप्रकारेण लोकद्वयेऽपि दुःखदां धनादिसंपत्ति कथं मुञ्चति न जनः । कथमिति विस्मयगर्भे प्रश्ने । अत्र गुरुरुत्तरमाह अर्थ-जैसे कोई ज्वरवाला प्राणी घीको खाकर या चिपड़ कर अपनेको स्वस्थ मानने लग जाय, उसी प्रकार कोई एक मनुष्य मुश्किलसे पैदा किये गये तथा जिसकी रक्षा करना कठिन है और फिर भी नष्ट हो जानेवाले हैं, ऐसे धन आदिकोंसे अपनेको सुखी मानने लग जाता है। विशदार्थ-जैसे कोई एक भोला प्राणी जो सामज्वर ( ठंड देकर आनेवाले बुखार ) से पीड़ित होता है, वह बुद्धिके ठिकाने न रहनेसे-बुद्धिके बिगड़ जानेसे घी को खाकर या उसकी मालिश कर लेनेसे अपने आपको स्वस्व-नीरोग मानने लगता है, उसी तरह कोई कोई ( सभी नहीं ) धन, दौलत, स्त्री आदिक जिनका कि उपार्जित करना कठिन तथा जो रक्षा करते भी नष्ट हो जानेवाले हैं-ऐसे इष्ट वस्तुओंमें अपने आपको 'मैं सुखी हूँ' ऐसा मानने लग जाते हैं, इसलिए समझो कि जो मुश्किलोंसे पैदा किये जाते तथा जिनकी रक्षा बड़ी कठिनाईसे होती है, तथा जो नष्ट हो जाते हैं, स्थिर नहीं रहते, ऐसे धनादिकोंसे दुःख ही होता है, जैसे कि कहा है-"अर्थस्योपार्जने दुःखं०" “धनके कमानेमें दुःख, रक्षा करनेमें दुःख, उसके जाने में दुःख, इस तरह हर हालतमें दुःखके कारणरूप धनको धिक्कार हो"। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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