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इष्टोपदेशः पारतन्त्र्यात्' । कदा कदा, प्रगे प्रगे प्रातः प्रातः । एवं संसारिणो जीवा अपि नरकादिगतिस्थानेभ्य आगत्य कुले स्वायुःकालं यावत् संभूय तिष्ठन्ति तथा निजनिजपारतन्त्र्याद् देवगत्यादिस्थानेष्वनियमेन स्वायुःकालान्ते गच्छन्तीति प्रतीहि । कथं भद्र तव दारादिषु हितबुद्धया गृहीतेषु सर्वथान्यस्वभावेषु आत्मात्मीयभावः ? यदि खल्वेतदात्मका स्युः, तदा त्वयि तदवस्थे एव कथमवस्थान्तरं गच्छेयुः । यदि च एते तावकाः स्युस्तहिं कथं क्व प्रयोगमन्तरेणैव यत्र क्वापि प्रयान्तीति मोह दावेशमपसार्य यथावत् पश्येति दाष्टन्तेि दर्शनीयम । अहितवर्गेऽपि दृष्टान्तः प्रदर्श्यते । अस्माभिरिति योज्यम्
अर्थ-देखो, भिन्न भिन्न दिशाओं व देशोंसे उड़ उड़कर आते हुए पक्षिगण वृक्षोंपर आकर रैनबसेरा करते हैं और सबेरा होनेपर अपने अपने कार्यके वशसे जुदा जुदा दिशाओं व देशों में उड़ जाते हैं।
विशदार्थ-जैसे पूर्व आदिक दिशाओं एवं अंग, बंग आदि विभिन्न देशोंसे उड़कर पक्षिगण दृक्षोंपर आ बैठते हैं, रात रहनेतक वहीं बसेरा करते हैं और सबेरा होनेपर अनियत दिशा व देशकी ओर उड़ जाते हैं-उनका यह नियम नहीं रहता कि जिस देशसे आये हों उसी ओर जावें । वे तो कहींसे आते हैं और कहींको चले जाते हैं-वैसे ही संसारी जीव भी नरकगत्यादिरूप स्थानोंसे आकर कुलमें अपनी आयुकाल पर्यन्त रहते हुए मिल-जुलकर रहते हैं और फिर अपने अपने कर्मोके अनुसार, आयुके अंत में देवगत्यादि स्थानोंमें चले जाते हैं। हे भद्र ! जब यह बात है तब हितरूपसे समझे हुए, सर्वथा अन्य स्वभाववाले स्त्री आदिकोंमें तेरी आत्मा व आत्मीय बुद्धि कैसी ? अरे ! यदि ये शरीरादिक पदार्थ तुम्हारे स्वरूप होते तो तुम्हारे तदवस्थ रहते हए, अवस्थान्तरोंको कैसे प्राप्त हो जाते ? यदि ये तुम्हारे स्वरूप नहीं अपि तु तुम्हारे होते तो प्रयोगके बिना ही ये जहाँ चाहे कैसे चले जाते ? अतः मोहनीय पिशाचके आवेशको दूर हटा ठीक ठीक देखनेकी चेष्टा कर ॥९॥
दोहा-दिशा देशसे आयकर, पक्षी वृक्ष बसन्त।
प्रात होत निज कार्यवश, इच्छित देश उड़न्त ॥९॥ उत्थानिका-आचार्य आगेके श्लोकमें शत्रुओंके प्रति होनेवाले भावोंको 'ये हमारे शत्र हैं', 'अहितकर्ता हैं' आदि अज्ञानपूर्ण बतलाते हुए उसे दृष्टान्तद्वारा समझाते हैं, साथ ही ऐसे भावोंको दूर करनेके लिये प्रेरणा भी करते हैं
विराधकः कथं हन्त्रे, जनाय परिकुप्यति ।
व्यङ्गुलं पातयन् पद्भ्यां स्वयं दण्डेन पात्यते ॥१०॥ अन्वय-विराधकः कथं हन्त्रे जनाय परिकुप्यति, व्यङगुलं पद्भ्यां पातयन् दण्डेन स्वयं पात्यते।
टीका--कथमित्यरुचौ, न श्रद्दधे कथं परिकुप्यति समन्तात् कुप्यति । कोऽसौ, विराधकः अपकारकर्ता जनः । कस्मै, हन्त्रे जनाय प्रत्यपकारकाय लोकाय । “सुखं वा यदि वा दुःखं, येन यश्च कृतं भुवि । अवाप्नोति स तत्तस्मादेष मार्गः सुनिश्चितः ॥” इत्यभिधानादन्याय्यमेतदिति भावः । अत्र दृष्टान्तमाचष्टे-त्र्यङ्गल
१. पराधीनतया । २. अयुक्तम् ।
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