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महुअरु-मिस-विस गिलई, कि सुहमरण- विरहि ॥२६२ चंदनंद चिरकालसुर्यणिहिं रायतु अ
कुमणि दि आसीस ति विह सीय जलहि सुअ । सस संबर सीयाल सुसद्दिहिं गयणधण गज्जइ निसि अंधार कि आविय घोरघण || २६३ लहु लहु धंतसुदंत कि ससहरकरपसर
दीस दीसह जाणि कि भंजई करपसर सुइ विमलणि अंगविरंगिहि नियसुवणि बहु फल फलिय सुबहुअर तरुअर वीणवणि ॥ २६४
भाषण
तिणि प्रस्तावि ते ललितांग कुमर,
अभिनवउ तीणि वनि जाणि कि भोगि भ्रमर ॥ जिम लवणरहित रसवती, छंदो रहित सरस्वती ॥ गंठ-रहित गान, अर्थ-रहित अभिमान ॥ गुरु-विहीन ज्ञान, योग-रहित ध्यान ॥ लावण्य- रहित रूप, जल-रहित कूप ॥ देव-रहित प्रासाद, रस- रहित नाद ॥ नाशिका -रहित मुख, पुण्य-रहित सुख ॥ उच्छव-रहित घर, गुण-रहित नर ॥ दया - रहित धर्म, कारण रहित नर्म ॥
दान-रहित धन, तिम दृष्टि-रहित कुमर जाणइ ते ते हवउं अपूर्व उपवन ॥ २६५
ते वन केहुं अपूर्व छिई ?
षट्पद
अंबु जंबु जंबीर कीर कंथार करीरह कालुंबरि कृतमाल कउठि केवडि कणवीरह || कदली किंसुअ कमल किंब कल्हार कि भणीइं खीरणि खीर खजूर खीरतरु खारिक सुणीइं ॥
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