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तृतीय अधिकार
( २५५ - ३५० )
ललितांगकुमार- विपदुच्छ- पुष्पावती- पाणिग्रहण - राज्यार्ध - प्राप्ति-वर्णन
गाथा
इह दुह- दुत्थावत्था - नइपूरि निछुट्टमाणसो कुमरो । चितइ अहो किमेवं मम धम्मरयस्स संजायं ॥ २५५ तं चेव सुयणवयणं, कह सुपमाणं वडं जुगं मे वि । न उणो नायं सिद्धी, कइं तरिया हवइ धम्मे ॥ २५६ जह अंगमल विसुद्धी, खलि-तिल्लया - पमुह - वत्थु - सत्थेहिं । किज्जइ पुव्वमपुव्वं, तर तस धम्मस्स धुवसिद्धी ॥ २५७ धिद्धी मे मोहमई, जेणेरसि चिंतणं विलोमस्स । धम्मो धुवं जगत्तिय जय हेऊ तन्नही होइ ॥ २५८ दूहउ रूसउ सज्जण हसउ जण, निंद करउ सहु लोइ । जिणवर - आण वहंतडाँ, जिम भावइ तिम होइ ॥ २५९
गाथा
इअ निअमणो सुवेरग्ग-संकलियाए निजंतिऊण पुणो । चलमघुडु-व्व कुमरो अइ- वहइ वाह बहुल - दिणं ॥२६०
रासव
संझ - समय सु पहुत्तउ, तिहिँ इत्थंतरिहिँ । तसु दुह दुहिय कि गिउ रवि, पच्छिम-अंतरिहिँ । निय - निय-नीड- निलीण के पुण महासरिहिँ पक्खिय सवि कंदंति सुजंत महासरहिँ ॥ २६१ दहदिसि हुई कि तिणि दुहि, कज्जल-काल- मुह तारय- गण दुज्जण जण दक्खइ अप्प - सुह । परमिणि-संड विसंडियमाण कि पिय विरहि
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