________________
[51] भंजइ जे भुजवलि भूव-आण, खंडइ खल खित्ति जे गुरुअ-माण । छंडइ छलि छोत्तिए कुलह नारी, विण-सत्थि कहिज्जइ तिन्नि मारि ।।९४
आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां० ॥९४(a) पिण किज्जइ कारणि उच्च कज्ज, जिह करताँ नावइ लोय लज्ज । सक्कर खंताँ नइ पडइँ दंत, तिहँ जडिय न मूलीय मंत तंत ॥९५ जिणि पसरई चिहुँ दिसि चाय-कित्ति, तिणि वंछइ मूढ सु कुण अकित्ति । जंदाण भणिज्जइ जग-पहाण, तिहि करइ किसउँ नरराय आण ॥९६ जं दिताँ होइ सुहु अउ(इ?) अम्ह, रूसउ जण दुज्जण करउ नम्म । खजंत दियंताँ जाइ लच्छि, सा जाउ सुजिनी वलि न पुच्छि ॥९७ इम चिंतवि चालिउ चतुर कुमार, दिइ पुणरवि दुत्थिय दाण-सार । धण कंचण कप्पड अइ अपुव्व, जं चडइ हत्थि तं दियइ सव्व ॥९८ • जं जीवह जारिस सहज भाउ, नवि मिल्हइँ ते तिम निय-सहाउ उक्कालिय जल जिम सीय होइ, जगि नहीं सहज पडियार कोइ ॥९९ जइ वास सयं गोवालीया, कुसमाणिय बंधइ मालिया। ता किं सहाव-धिय-गंधिया, कुसमेहिँ होइ सुगंधिया ।।१००
पद्धडी इम जाणि वलि कुपिउ नरेस, दिद्धउ डसिआहरि तसु विदेस । रक्खिय रोसग्गलि राय-बार, जिहँ हुंतउ अणुदिण नवि निवार ॥१०१
वस्तु कुमर पिक्खिय कुमर पिक्खिय राय कुपसाय, चिंतइ इम नियह मनि, करउँ केम अह माण-कज्जिहि, जउ आइय मुझ वसण, नवि कावि नहीं मुझ ईह रज्जिहि, अविणय अनयत्तण रहिय, जइ एमुसुण दोस (एम्वइँ पुण?) लउ मइँ इह रहिवउँ नहीं, आइ न होइ न जोस? ॥१०२
गाथा
वाहि-दलिद्द-मलिन्ना, वि माण-वसणागमे मणस्सीणं ननत्थ सुहं सयलं, देसंतरं-गमण-विमणाणं ।।१०३
यतः दीसइ विविहच्चरियं ।।१०४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org