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छाया निज-मुख-करैः अपि मुग्धा किल अन्धकारे प्रतिप्रेक्षते । शशि-मण्डल.
चन्द्रिकया पुनः किम न दूरे पश्यति ॥ अनुवाद कहा जाता है कि (वह) मुग्धा अपने मुख (की कांति) के किरण द्वारा
अंधकार में भी देख सकती है । तो फिर चंद्रबिंब की चंद्रिका में क्यों
दूर तक नहीं देखती ( = देख पाती) ? उदा० (२) जहिँ मरगय-कंतिए-संवलिअं । शब्दार्थ जहि -यत्र । मरगय-कंतिए-मरकत-कान्या । सेवलिअं-संवलितम् ।। छाया यत्र मरकत-कान्त्या संवालेतम् । अनुवाद जहा मरकत(मणि) की कांति से लिपटा हुआ......
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वृत्ति
उदा०
उस.-ङस्योहे ॥ 'स' और 'इसि' का 'हे' ।
अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परयोर् 'सर, 'सि' इत्येतयोर 'हे' इत्यादेशो भवति । सः । मपभ्रंश में स्त्रीलिंग में स्थित संज्ञा के बाद आते ‘ङस् ' ( = षष्ठी एकवचन के '० अस ' प्रत्यय) और 'सि' ( = पंचमी एकवचन के 'अस्' प्रत्यय) का 'हे' ऐसा आदेश होता है । (जैसे कि) 'डस' का : (१) तुच्छ-मज्झहे
तुच्छ-जंपिरहे। तुच्छच्छ-रोमावलिहे
तुच्छ-राय, तुच्छयर-हासहे। पिअ-वयणु अलहंतिअहे तुच्छ-काय-वम्मह-निवासहे ॥ अण्णु जु तुच्छउँ तहे धणहे तं अक्खणहँ न जाइ ।
कटरि थर्णतरु मुद्धडहे जं मणु विच्चि न माइ ।। तच्छ-मन्सहे-तुच्छ-मध्यायाः । तुच्छ-जंपिरहे -तुच्छ-जल्पनशीलायाः ( = तुम्छम् वदन्त्याः)। तुच्छच्छ-रोमावलिहे -तुच्छाच्छ-रोमावल्याः । तुच्छ-गय-(हे) तुच्छ-राग । तुच्छयर-हासहे -तुच्छतर-हासायाः । पिम-क्यणु-प्रिय-वचनम् । अलहंतिआहे -अलभमानायाः। तुच्छ-कायवम्मह-निवासहे -तुच्छ-काय-मन्मथ-निवासायाः । अण्णु-अन्यद् । जु-यद् । तुच्छउँ-तुच्छकम् । तहे-तस्याः । धणहे (दे.)-प्रियायाः ।
शब्दार्थ
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