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द्वितीय पु. बहु व.: हु
करहु, नमहु, पिअहु, मगहु, देहु ।
ह
पल्लवह, पुच्छह, ब्रुवह
अच्छर, विणडउ, ( कर्मणि) समप्पउ, जाउ, होउ ।
तृतीय पु. एक व. : उ तृतीय पु. बहु व.: न्तु इनमें 'अ' (द्वितीय पु.
(= अनुस्वर + 'तु') पीडन्तु ।
एक व.), 'हि' (द्वितीय पु. एक व.), ह (द्वितीय पु. बहु व.) प्रत्ययवाले रूप प्राकृत में से लिये गये हैं । 'ऍ', प्रत्यय 'इ' की पूर्व भूमिका है ।
'चरि', 'जोइ' पर से 'चर', 'जो', 'करहु' पर से 'करो' और 'करउ' (तृतीय पु. एक व . ) पर से 'करो' ('भगवान आपका भला करो ।' जैसे प्रयोगों में)
इस प्रकार आधुनिक रूप बने हैं ।
('इ', 'अ ' - संस्कृत विध्यर्थ परस्मै द्वितीय पु. एकवचन के 'ए' प्रत्यय में से, 'उ' ८ 'अ', 'हु', 'ह' वर्तमान के : 'उ' « 'तु' ।)
आज्ञार्थ भविष्य
द्वितीय पु. एक व. : हि
( अंगसाधक 'ज्ज' ) : दिज्जहि (अंगसाधक 'एज्ज' ) : रक्खेज्जहु
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इसके अलावा 'अ' प्रत्ययवाले प्राकृत रूप पुरुष और वचन से निरपेक्ष रूप से प्रयुक्त होते थे | उदारणों में ('इज्ज' अंगसाधकवाले) चइज्न, भमिज्ज, (द्वितीय पु. एक व.) और ('ज' अंगसाधकवाला) 'होज्ज' ( तृतीय पु. एक व.) ऐसे रूप हैं । 'लज्जेज्जं' (प्रथम पु. एक व.) रूप संस्कृत 'लज्जेयम्' (विध्यर्थ प्रथम पु. एक व . ) का ही रूपांतर है ।
'दिज्जहि' (या 'देज्जहि'), 'रक खेज्जहु' ( या 'रकूखिज्जहु ) जैसे रूपों से आधुनिक गुजराती में 'देजे', 'राखजो' जैसे रूप बने हैं ।
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कृदंत
वर्तमान, कर्मणि भूत, विध्यर्थ और सम्बन्धक भूत या पूर्वकालिक (तथा हेत्वर्थ) ये चार कृदंत हैं ।
वर्तमान कृदंत : प्रत्यय 'न्त' ( = अनुस्वार + 'त' ) : व्यंजनांत अंगों के बाद यदि प्रत्यय लगा हो तो वहाँ बीच में संयोजक 'अ' रहता है। कभी-कभी स्वार्थिक 'अ' से विस्तृत हो कर 'न्तय' (संकुचित 'न्ता') रूप में भी यह प्रयुक्त हुआ है । - बोलिंग में वही और 'ति' का विस्तृत 'न्ति' है । छन्दवश क्वचित् अनुस्वार का अनुनासिक हुआ है । आधुनिक वर्तमान कृदंत में अनुनासिकता लुप्त हो कर केवल 'तू' प्रत्यय रहा है । ( 'करतू' : करता करती )
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