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( xl )
'करउँ' पर से 'करूँ' और हकार लुप्त होने पर 'करहि" पर से 'करे', 'करहु ' पर से 'करो', और 'करहि' पर से 'करे' ऐसे आधुनिक रूप बने हैं ।
निर्देशार्थ भविष्य
भविष्य - अंग + (संयोजक स्वर ) + प्रत्यय = भविष्य रूप ।
में
प्रथम पु. एक व. के रुप में संयोजक स्वर नहीं है । तृतीय पु. एक व. क्वचित् 'इ' संयोजक है ।
प्रथम पु. एक व. : 'उ' (अंग साधक 'इस) : करीसु, पावीसु, बुड्डीसु, (कर्मणि) areary (अंग साधक 'एस): रूसेसु; (अंग साधक 'इस ) : फुट्ट
द्वितीय पु. एक व. : 'हि' (अंगसाधक 'एस 2 ) : सहेसहि । तृतीय पु. एक व. :
'इ' (अंगसाधक 'इस') : चुण्णीहोइसह; (संयोजक 'इ' ) ऐसी, ( अगसाधक 'इह', संयोजक 'इ० ) : गमिही ; ( अंपसाधक 'ह', संयोजक 'इ' ) होहि ।
तृतीय पु. बहु व. : 'हि" ( अंगसाधक 'स) : होसहि ।
अन्य रूपों के उदाहरण नहीं है । 'एसी' < 'एसिड'; 'गमिही' 'गमिहिइ' इनमें 'इ + इ' = 'ई' यह संधि है ।
हेमचन्द्र 'कीसु' को कर्मणि वर्तमान का रूप मानते हैं (सू. 389 ) । परंतु कर्मणि अंग 'कि' ('किज्जउँ' आदि में है वह ) + भविष्य अंगसाधक 'इस' + प्रथम पु. एक व. का प्रत्यय 'उ' ऐसा स्पष्ट पृथक्करण किया जा सकता है |
आज्ञार्थ वर्तमान
स्वर से आरंभ होते प्रत्यय सीधे ही अंग को लगे हैं । व्यंजन से प्रारंभ होते प्रत्यय और व्यंजनांत अंग के बीच संयोजक 'अ' होता है ।
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प्रत्यय
द्वितीय पु. एक व. : इ
उ
अ
हि
रूप
अच्छि चरि, जंपि, जोइ, फुट्टि, मेल्लि, रोइ, संचि, सुमरि ।
करे
रुणझुणि
करु, गज्जु, देक्खु, पेक्खु, विलंबु
पेच्छ, भण
आणहि, करहि, छड्डूहि, घरहि, सुमरहि, खाहि ।
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