________________
(xxxviii)
सिद्ध प्रकार : ( सीधे संस्कृत कर्मणि अंग का ध्वनिपरिवर्तित रूप ) : वेप्प ू,
डज्झ, लब्भ, समप्प ।
कर्मणि अंग मौलिक अथवा प्रेरक अंग पर से सिद्ध होता है ।
भविष्य अंग - 'ईस' ('एस', 'इस'), 'स' (स्वरांत के बाद) प्रत्यय वाले: करीस, पइसीस, पावीस बुड्डीस, की, सहेस; फुट्टिस, होइस, सो I
'इह' या 'ह' (स्वरांत के बाद) वाले : गहि हो ।
>
( भविष्य के अंगसाधक प्रत्यय संस्कृत ' (इ) ष्य' में से आये आज्ञार्थ अंग - 'एज्ज' ('इज्ज) या 'ज्ज' (स्वरांत के बाद)
रक्खेज्ज
लज्जेज्ज ू, चइज्ज ू, दिज्ज, भमिज, होज्ज I
( अंगसाधक प्रत्यय विध्यर्थ के 'एय' में से आये हैं ।)
"
संयोजक स्वर
कुछ रूपों में अंग और रूपसाधक प्रत्यय संन्निकट हो, तो कुछ में उनके बीच संयोजक स्वर है । (1) स्वरांत अंगों के बाद, (2) आज्ञार्थं द्वितीय पुरुष एकवचन के स्वरादि प्रत्ययों के पहले और (3) भविष्यकाल के प्रथम पुरुष एकवचन के प्रत्यय के पहले संयोजक स्वर नहीं है । अन्यत्र है ।
संयोजक स्वर बहुधा 'अ', तो क्यचित् 'आ', 'इ', 'अ' या 'अ' है ।
हैं । भविष्य प्रत्यय वाले :
काल
निदेशार्थ में (1) वर्तमानकाल और (2) भविष्य, तथा आज्ञार्थ में (3) वर्तमान और (4) भविष्य - इतने रूप हैं । यह रूप कर्तरि तथा कर्मणि प्रयोग के मौलिक तथा प्रेरक अंग पर से सिद्ध हुए हैं । भविष्य के लिये विशिष्ट अंग है | हेमचन्द्र द्वारा दिये गये उदाहरण स्वरूप तथा प्रमाण की दृष्टि से सीमित होने के कारण इनमें कुछ ही रूप प्रकार के नमूने हैं ।
इनके अलावा अन्य भाव उक्त काल के रूपों द्वारा, किसी प्रकार से व्यक्त हुए हैं । उनके लिये विशिष्ट रूप नहीं है ।
Jain Education International
निर्देशार्थ वर्तमान
संयोजक स्वर : व्यंजनांत अंग और प्रत्यय के बीच संयोजक 'अ' होता है । छन्द के कारण प्रयुक्त पूर्व भूमिका के कुछ रूपों में संयोजक 'ए' या 'आ' हे |
For Private & Personal Use Only
कृदंत द्वारा या अन्य
www.jainelibrary.org