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३. हेमचन्द्रीय अपभ्रश
पुरुषोत्तम, रामशर्मा, मार्कडेय, त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर आदि के प्राकृत-ज्याकरणों में अपभ्रंश के विषय में थोडी-बहुत जानकारी दी है परंतु या तो ये विद्वान हेमचंद्र से आधुनिक है या उस पर निर्भर है अथवा उनकी जानकारी संक्षिप्त और
अव्यवस्थित है । प्राचीनता, विस्तार और व्यवस्था की दृष्टि से हेमचन्द्र का अपभ्रंश विषयक निरूपण सबसे महत्त्वपूर्ण और उद्धृत उदाहरणों के कारण प्रमाणभूत है ।
जैसा कि कहा जा चूका है हेमचन्द्र ने अपभ्रंश को एकरूप मानकर उसका प्रतिपादन किया है । वे कहीं भी अपभ्रंश के विविध भेदों का उल्लेख भी नहीं करते है। बे अपभ्रंश को एक साहित्य भाषा माननेवालों की परंपरा का अनुसरण करते हैं । वैसे शौरसेनी, मागधी, पैशाची आदि प्राकृत-प्रकारों तथा उनके सामान्य लक्षणों का उन्होंने स्पष्टतः उल्लेख किया है परंतु अपभ्रंश प्रकारो के बारे में हल्का-सा इशारा भी नहीं किया है। उनके 'काव्यानुशासन' में एक स्थान पर ग्राम्य अपनश का और उसमें रचित काव्य के नाम का निर्देश (भोज का अनुसरण करते हुए) मिलता है परंतु लगता है कि इस निर्देश द्वारा शिष्ट सर्वसाधारण साहित्य भाषा के स्थानीय अंशयुक्त मिलावटवाले रूप का संकेत दिया गया है। अतः स्पष्ट है कि हेमचन्द्र को अपभ्रश' सज्ञा से एक प्रतिष्ठित साहित्यभाषा ही अभीष्ट थी ।
परंतु भिन्न-भिन्न समय के पूर्वरचित व्याकरणों और साहित्यरचनाओं पर आधारित होने के कारण हेमचन्द्र निरूपित अपभ्रश में भाषिक विश्लेषण की दृष्टि से भिन्न-भिन्न देशकाल की विविध भाषा सामग्री को मिश्रण होना अनिवार्य है ।
पहले हम हेमचन्द्र द्वारा दिये उदाहरणों के आधार पर हेमचन्द्र से भिन्न एक स्वतंत्र व्याकरण की रूपरेखा बनाये ।
व्याकरण की रूपरेखा इस रूपरेखा को ध्वनिविकास, शब्द-रचना, संज्ञा के रूप-नियम और प्रयोग जैसे विभागों में बांटा है ।
1. ध्वनिविकासः मुख्यतः प्राकृत की स्थिति अपभ्रश में चालु रही है। प्राचीन भारतीय-आर्य में से मध्य भारतीय-आर्य में हुए ध्वनिपरिवर्तन · का संक्षिप्त सार (अपभ्रंश की बचीखुची विशेषताओं के साथ) इस प्रकार है : :
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