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________________ (xxix ) व्यंजनो को सुरक्षित रखना और क्वचित् (आद्याक्षर में) रकार का प्रक्षेप इत्यादि । रूप-परिवर्तन में सार्वनामिक प्रत्ययों से विकसित प्रत्यय आगे चलकर संज्ञा के रूपपरिवर्तन में भी सादृश्यता के कारण प्रयुक्त होने लगे हैं और अकारांत अंगो का प्रभाव सर्वग्राही है । प्रथमा-द्वितीया, तृतीया-सप्तमी और पंचमी-षष्ठी की घालमेल में चार कारक विभक्तियाँ अलग की जा सकती हैं और फलतः परसों का प्रचार बढ़ता गया है । इसके अलावा विभक्ति के विशिष्ट प्रयोग और रुढ़ उक्तियाँ आदि हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं । इस दृष्टि से अपभ्रंश प्राकृत से ज्यादा आधुनिक भाषाओं के अधिक निकट है । शब्द-समूह के संदर्भ में भी यही बात नजर आती है। प्राकृत की तुलना में अपभ्रंश में देशज शब्दों का प्रयोग बढ़ा है और उनमें से कई आधुनिक भाषाओं में संधेि चले आये हैं । अपभ्रंश साहित्य की उपलब्ध कृतिओं में जो भाषा मिलती है, उसे स्थूल दृष्टि से एकरूप माना जा सकता है । परंतु आधुनिक विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखें तो समय और प्रवेश के अनुसार उसमें कुछ भिन्नता स्पष्टतः दिखाई देती है। दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की अपभ्रंश कृतियों की भाषा मूलतः तो प्रादेशिक भिन्नता के कारण कुछ अपनी-अपनी विशेषतायें लिये हुए हैं। इसी प्रकार स्वयंभू, पुष्पदंत, हरिभद्र आदि के शिष्ट, उच्च, पांडित्यप्रचुर अपभ्रंश की तुलना में हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत कुछ दोहों का लौकिक अपभ्रंश काफी भिन्न है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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