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परिशिष्ट-(२)
1. धवलगीत 340. (2) इस प्रकार की अन्योक्तियाँ 'धवलान्योक्ति' के रूप में प्रसिद्ध है । .421. (1) इसका दूसग उदाहरण है । इस प्रकार के गीत ईसा की दूसरी शताब्दी से रचे जाते थे । विविध प्रकार के धवलगीतों के छंद की व्याख्या अपभ्रंश के छंदग्रंथों में दी गयी है । प्राकृत और अपभ्रंश रचनाओं में से धवलगीत के उदाहरण मिलते हैं । प्राकृत सुभाषित--संग्रह 'वज्जालग्ग' में एक विभाग 'धवल-वज्जा' का है । आगे चलकर गुजराती, राजस्थानी, मराठी आदि के मध्यकालीन साहित्य में धवलगीतों को परंपरा चालु रही है । आज भी वैष्णव परंपरा में स्त्रियों रात में इकट्ठी बैठती हैं और 'धौलगीत' (धवलगीत) गाती हैं । विवाहगीत भी 'धौल' का ही एक प्रकार है ! विशेष के लिये देखिये मेंरा लेख Dhavalas in Prakrit; Apabhramsa and post-Apathramśa Traditions, Bulletin d' Etudes Indiennes, 6, 1988, 93-103. अपभ्रंश-पुरानी गुजराती के सुभाषित-संग्रहों में इस प्रकार की फुटकल धवलान्योक्तियाँ भी मिलती हैं । जैसे
नई ऊंडी तलि चीकणी, पय थाहर न लहंति । तिम कड्ढिज्जे धवल भरु, जिम दुज्जण न हसति ।।
'नदी गहरी है, उसका तल खटीला है, पैर टिक नहीं पाते, तो हे धवल, बोझ खिंचकर पार पहूचना ताकि दुर्जन तुम्हारा मजाक न बनाये ।' (भो. ज. सांडेसरा, ‘ाचीन गुजराती दुहा', 'ऊमिनवरचना', पृ. 286, पद्य 12.
2. भ्रमरान्योक्ति
387. (2) हेमचन्द्र का यह उदाहरण-पद्य छंद की दृष्टि से दोहा है । परंतु एक प्राचीन सुभाषित-संग्रह में वह थोड़े से पाठ-भेद से कुडलिया छंद में रचे गये सुभाषित की पहली ईकाई के रूप में मिलता है। कुडलिया छंद दोहा + वस्तुवदनक ( = रोला) का बना है । इसमें दोहे के अंतिम चरण का रोला के प्रारंभ में पुनरा• वर्तन होता है । यह पद्य इस प्रकार है ।
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