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१५३ (3) सोएवा, जग्गेवा क्रियावाचक संज्ञा के रूप में प्रयुक्त हुए है । तुलनीय गुज. सूवु 'सोना', जागवु 'जागना' ।
___439-440. °इ प्रत्ययवाले सम्बन्धक भूतकृदंतों पर से आधुनिक हिन्दी के प्रत्यय-रहित रूप (मार कर, बोल कर आदि में मार, बोल) प्राप्त हुए हैं । इउ प्रत्ययवाले रूपों पर से गुजगती के सं. भू. कदंत आये हैं (करिउ>करी) । दोनों संस्कृत के सोपसर्ग धातु को लगते -य- प्रत्यय (अनुगम्य आदि में के) पर से बने हैं । एक में य> इ, दूसरे में विश्लेष से °इय ।
वैदिक त्वी पर से °अप्पि, एप्पि और फिर अवि, एवि, इवि, वैदिक °वीन पर से एप्पिणु, एविणु । सम्बन्धक और हेत्वर्थ कृदंत के चार-पांच प्रत्ययों का होना यह सूचित करता है कि आधारभूत सामग्री के मूल में विविध बोलियाँ होंगी । _____439. (1). 'तो क्या आकाश में चढ़ जायेगे ?' यह जीवन्त लोकबोली का प्रयोग है।
चड़ाहुँ, मराहुँ : यहाँ तथा अन्यत्र कई स्थानों पर वर्तमान भविष्यार्थ है । देखिये भूमिका में 'व्याकरण की ख्परेखा' ।
(3). विष का एक अर्थ 'पानी' भी है। संभवतः मुंज श्लिष्ट है । 'मुंज' घास और 'मुज' राजा । डोह. पर से अर्थभेद से गुजराती डोवु (खंगालना') आया है ।
(4). °ट्ठिउ अनुग है। हिअय-द्विउ अर्थात् 'हृदय से', 'हृदय में में', गुजराती का थी (दत्य रूप) थिउ < स्थितः पर से है ।
440. उदाहरण रचा हुआ है । - 441. °एवं यह विध्यर्थ कृदंत का प्रत्यय होने के कारण हेत्वर्थ कृदंत के लिये प्रयुक्त होता है । अण यह संस्कृत क्रियावाचक संज्ञा सिद्ध करता अनप्रत्यय हो है (गमन-, करण- आदि में का)। अनवाले अंग को षष्ठी का हँ और तृीया सप्तमी का हि लगकर °अणहँ, अणहि सिद्ध हुए हैं।
राजस्थानी में करणो, हिन्दी करना, मराठी करणे आदि रूपों का सम्बन्ध हेत्वर्थ के लिये प्रयुक्त अण अंतवाले रूपों से हैं | भुजणहि न जाइ के लिये देखिये 350 (1). विषयक टिप्पणी । 441 (1), (2) रचे हुए उदाहरण हैं ।।
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