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391. ब्रुव रकार बचाये रखते अपभ्रंशविशेष का रूप है । देखिये सूत्र 398 । दूसरे उदाहरण का ब्रो, 393 का प्रस्सदि, 394 का गृण्हेप्पिणु और व्रतु भी इसी कोटि के हैं। प्रस्सदि का दि तथा व्रतु में सुरक्षित असाधारण त भी विशिष्ट अपभ्रंश प्रकार का सूचक है ।
392. पूरे अपभ्रंश में जू व्यंजन इस वुन धातु के रूपों के सिवा कहीं मिलता नहीं । और वह रूप भी उपलब्ध साहित्य में मिलता नहीं है ।
393. प्रस्स: प्रसिद्ध अपभ्रंश साहित्य में दिखाई नहीं देता ।
प्रस्स- के मूल में पश्य- है । पश्य - का पस्स होने के स्थान पर रकार"प्रक्षेप से (देखिये सूत्र 399) प्रस्स- हुआ । दि के लिये देखिये 391 विषयक टिप्पणी । पद्यरूप उदाहरण नहीं दिया है। बनाया हुआ रूप ही दे दिया है । ..
394. गृण्ह- अप. में क्वचित् सुरक्षित ऋकार का उदाहरण प्रस्तुत करता है । सुकृदु, घृण, कृदंत आदि ऐसे अन्य उदाहरण हैं। देखिये भूमिका में 'व्याकरण को रूपरेखा' । छोल्ल - का कर्मावाच्य अंग छोल्लिाज- और उस पर से वर्तमान कृदंत छोल्लिज्जतु । प्राकृत-अपभ्रंश में वर्तमान कृदंत क्रियातिपत्यर्थ के वाचक भी है । छोल्लिज्जतु और लहंतु इसके जैसे हिन्दी उदाहरण कहता, देखता, गुज. करत, जोत आदि । कमलि तृतीया एकवचन का रूप है । हेमचन्द्र ने तृ. एकवचन के लिये °इ प्रत्यय का जिक्र किया नहीं है ।
395 (2). चूड-और-उल्ल-को -अ- प्रत्यय लगने पर (देखिये सूत्र 429) चूडुल्लय- हुआ है। सं. निहित-का निहिअ-होता है, और सादृश्यबल से निहित्त-। • सं. रज.-, का रज्जइ-रत्त-, सं. भुज- का भुज्जइ- भुत्त- और उसी दाँचे के अनुसार सं. नि+धा-का निहिज्जइ-निहित्त- । ऊपर 390 विषयक टिप्पणी में देखिये पहुत्त-. सं. जि- का जिअ- इसके अतिरिक्त जित्त- भी इसी ढंग से हुआ है ।
झलक्क- के मूल में सं. ज्वल- है। सं. बाष्प- का बफ- होना चाहिये परंतु अर्धमागधी (या पूर्वीय प्राकृत) अनुसार बाफ- द्वारा बाह- हुआ है ।
यह दोहा मुंज द्वारा रचित है । देखिये 350 (2) विषयक टिप्पणी ।
(3). पेम्मु का "प्रिया' ऐसा अर्थ लेना पड़ता है परंतु प्रतीतिकारक नहीं है । सव्वासण-रिउ-संभव = सर्वाशन-रिपु-संभव अर्थात् 'सर्वभक्षी ( = वदवानल) के शत्रु ( = समुद्र) से जिसका जन्म हुआ है वह = चद्र' । पर्यायोक्ति है । परिवृत्त > परिवृत्त>परिअत्त में वकारका लोप हुआ है।
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