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झडप्पड- के मूल में झटप्पट- है । बलवाचक रूप होने के कारण हिं., गुज. झटपट में मूल का 'ट' अविकृत सुरक्षित है । झटपट के मूल में झट्टपट्ट उच्चारण है। तुलनीय प्राकृत-अपभ्रंश झड(त्ति) और हिं. गुज., झट ।
अच्छ- का होना' और 'बैठना, 'रहना' इन दोनों अर्थो में उदाहरण में प्रयोग हुआ है ।
छन्द के लिये करंतु का अनुस्वार अनुनासिक के रूप में बोलना है -करतु । हिं. करता, गुन. करतो जैसे आधुनिक रूपों का यह पुरोगामी रूप हो ।
स वाला भविष्यकाल गुजराती में चला आ रहा है । ह वाले भविष्यकाल की विरासत ब्रज, अवधी आदि प्राचीन हिन्दी भाषाओं को मिली है ।
389 का सूत्र एक विशिष्ट रूप का और 390 से 395 तक के सूत्र धात्वादेशों का प्रतिपादन करते हैं ।
389. असल में की यह कर के क° ऐसे कर्मवाच्य अंग पर से बने भविष्यकाल के पहले पुरुष एकवचन का रूप है, कर्तमानकाल का नहीं । कीसु = (मैं) करवाया जाऊँगा' । उचित अर्थ के बल की दृष्टि से वित्र स्थान पर जि की अपेक्षा रहती है।
390 से 395 तक के सूत्रों में विशिष्ठ धात्वादेश दिये हैं ।
390. सं. प्र + भू का पहच्च- आदेश होता है। असल में तो पहुच्च संस्कृत चकारांत धातुओं के रूपों के सादृश्य पर बना है ।
सं. सिंच पर से सिक्तः, प्रा. सित्तो-सिञ्चइ सं. वच पर से सं. उक्त प्रा. वुत्तो-बुच्चइ आदि की भाँति सं. प्रभूतः प्रा. पहुत्तो-पहुच्चइ अर्थ 'पर्याप्त होना' ऐसा नहीं परंतु 'तक पहुँच सकना' ऐसा है ।
छेअउ : स्वार्थे क जुड़कर छेद-पर से छेदक- । यहाँ 'हानि' ऐसा विशिष्ट अर्थ है । हकार के प्रक्षेप से बना हुआ छेहउ का प्रयोग 'हानि' अर्थ में प्राचीन गुजराती में हुआ है-लाहइ विणजु करेसु हउ, छेहउ माइ चएसु ।। ('सालिभद्र-वक,' 57)।
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