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381, 392, 393, 394, 397, 403, 404 (2), 408, 413, 435, 440, 441 और शायद 442 इन सूत्रों के नीचे दिये गये उदाहरण भी इसी प्रकार के हैं ।
यस्मात् > जम्हा> जहाँ । होन्तरं यह हो (सं. भव) 'होना' का वर्तमान कृदंत है । ऐसे प्रयोगों में वह पंचमी के परसर्ग के रूप में काम करता है । पुरानी गुजराती थड और अर्वा गुज. थी, थकी के स्थान पर यह है । नयरहो होन्तर = नगरथो 'नगर से' ।
आगदो शौरसेनी रूप है । ऐसे प्रभाववाले 373, 379 (1), 380, 393, 396, 422 (6)
प्रयोग
329, 360, 372, 446 इन उदाहरणों में भी हैं।
356. तुट्टर और नेहडा एक साथ प्रयुक्त हुए हैं । देखिये सूत्र 330 विषयक टिप्पणी |
वृत्तिकार उदयसौभाग्य तिल-तार का अर्थ 'तिल जैसी स्निग्ध जिसकी तारा (पुतली) है वह' यों मानकर उसे नायक का संबोधन मानते हैं । पीशेल उसे लुप्तप्रत्यय षष्ठी मानकर तहों के साथ जोड़ते हैं । वैद्य उसे 'जिसमें पुतली तिल जैसी स्निग्ध है ऐसा' = ‘तीव्र' यह अर्थ लेकर नेहडा का विशेषण मानकर व्याख्या करते है । अपभ्रंश महाकाव्य पुष्पदंतकृत 'महापुराण' में 75, 3, 13 विषयक टिप्पणी में तिलरिण का अर्थ 'स्नेहऋण' किया गया है ।
357. (2) यस्मिन् जहि जहि । विरहिणी का वर्णन | जमीन पर बिस्तर माघ मास जितना ठण्डा । तिल के पौधे अगहन में जल जाते हैं । कमल शिशिर के हिम से म्लान हो जाते हैं ।
358. (1) जासु । यहाँ षष्ठी संस्कृत चतुर्थी के अर्थ में है । ठाउ के लिये देखिये 332 ( 1 ) विषयक टिप्पण |
( 2 ) तिण सम गणइ । उदाहरण 329 ओर 422 (20) में तृण रूप मिलता है । अपभ्रंश में ऋस्वरवाले प्रयोगों के लिये देखिये भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा' ।
(3) अवसर निवडिअइ सति सप्तमी का प्रयोग है ।
359. कामचलाऊ उदाहरण ।
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