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________________ जेग-येन । निअम्बिणि-नि-म्बिनी । घडिअ-घटिता । स-सा । गुण-लायण्ण-णिहि-गुण-लावण्य-निधि । छाया ते दी. लोचने अन्ये । तद् भुज-युगलम् अन्यद् । सः धन-स्तन-भारः अन्यः । तद् मुख-कमलम् अन्यद् एव । सः केश-कलापः अन्यः एव । येन सा गुण-लावण्य-निधिः नितम्बिनी घटिता (सः) विधि: (अपि) प्रायः अन्यः एव । अनुवाद अद्वितीय है वे दीर्घ लोचन; अद्वितीय है वह भुजयुगल; अद्वितीय है उन धन स्तनों का भार; अद्वितीय ही है वह मुखकमल; अद्वितीय ही है वह केशकलाप; (और) जिसने उस गुण और लावण्य की निधि रूप नितंबिनी को गढ़ा (वह) विधाता (भी) लगता है कि, अद्वितीय ही है । उदा० (२) प्राइव मुणिह-वि भ्रंतडी ते मणिअडा गणंति । अखइ निरामइ परम-पइ अज्जु-वि लउ न लहति ॥ शब्दार्थ प्राइव-प्रायः । मुणि हँ-वि-मुनीनाम् अपि । भैतडी-भ्रान्तिः । तेंतेन । मणिअडा-मणीन् । गणंति-गणयन्ति । अखइ-अक्षये । निरामइनिरामये । परम-इ-परम्-पदे । अज्जु-वि-अद्य अपि । लउ-लयम् । न-न । लहंति-लभन्ते । प्रायः मुनीनाम् अपि भ्रान्तिः । तेन (ते) मणीन गणयन्ति । अक्षये निरामये परम-पदे (च ते) अद्य अपि लयम् न लभन्ते । छाया अनुवाद लगता है कि मुनियों को भी भ्रांति (ही) होती है ( = मुनि भी भ्रम में ही हैं) । इसीलिये तो (वे) गुरिया फेरते हैं, और अभी भी अक्षय और निगमय (ऐसे) परमपद में लय प्राप्त करते नहीं हैं । उदा० (३) अंसु-जले प्राइम्ब गोरिअहे. ते समुह संपेसिआ सहि उम्वत्ता नयण-सर । देंति तिरिच्छी पत्त पर ।। शब्दार्थ अँसु-जले -अश्रु-जलेन । प्राइम्ब-प्राय: । गोरिअहे -गौर्याः । सहिसखि । ऊवत्ता-उद्धृतौ । नयण-सर-नयन-शरौ । तें-तेन । संमुह-- सम्मुखौ । संपेसिअ-संप्रेषितौ । देति-दत्तः । तिरिच्छी-तिर्यग । घत्तघातम् । पर-केवलम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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