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________________ अनुवाद वृत्ति० 384 वृत्ति उदा० शब्दार्थ छाया अनुवाद वृत्ति 385 ४६ हे गौरी, इस जन्म में तथा अन्य जन्म में (मुझे ) ऐसा पति देना, जो अंकुश से भी वस में न आ सके ऐसे मत्त गजों से हँसते ( हँसते ) भीड़ जायें । पक्षे 'रुअसि' इत्यादि । अन्य पक्ष में ('रुअहि' इत्यादि के स्थान पर) (होते हैं) । बहुवे ॥ बहुवचन में 'हु' । त्यादीनां मध्यत्रयस्य सम्बन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यद्वचनं तस्यापभ्रंशे 'हु' इत्यादेशो वा भवति । Jain Education International 'ति' आदि (प्रत्यय) के बीच के तीन (प्रत्यय) को लगते बहुत्व के अर्थ में रहा हुआ जो वचन है ( उसके प्रत्यय) का अपभ्रंश में 'हु' ऐसा आदेश विकल्प में होता है । बलि - अन्मत्थणि महुमहणु जइ इच्छहु वड्डत्तणउँ बलि-अब्भत्थणि-बल्यभ्यर्थने । भूतः । छो-इ- सः अपि । (दे.) - महत्त्वम् । देहु - दत्त | को-इ-कम् अपि ॥ सः अपि मधुमथनः, बल्यभ्यर्थने लघुकीभूतः । यदि महत्त्वम् इच्छथ, ( तर्हि ) दत्त, मा मूक व्यपि याचध्वम् ॥ ऐसे ( महान ) विष्णु को भी बलि के (पास) अभ्यर्थना करने के लिये वामन होना पड़ा ( अर्थात् ) यदि महत्त्व चाहते हो, (तो) (दान) दो, किसी से माँगों मत । पक्षे 'इच्छह' इत्यादि । अन्य पक्ष में (इच्छछु' इत्यादि के स्थान पर 'इच्छा' इत्यादि होते ( हैं ) । अन्त्य त्रयस्याद्यस्य उँ । लहुईहूआ सो - इ । देहु, म मग्गहु को -इ ॥ 'असि' इत्यादि अन्यत्र के आध का 'उ' । महुमहणु - मधुमथन: । लहुई हूआ - लघुकीनइ - यदि । इच्छहु - इच्छथ । वड म मा । मग्गहु -- मार्गयत ( याचध्वम् ) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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