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आ अर्थ स्वीकारायो छे, अने स्वतंत्र रीते तेमां धणिनो अर्थ 'तृप्ति' 'संतोष' पण आग्यो छे । रत्नच द्रजीना अर्धमागधी-कोशमां गधद्धणि नो अर्थ 'गंधना जथ्यो, समूह' एवो को छे।
अभयदेवसूरिनी व्याख्यामां योग्य रीते ज गध्राणि नु विवरण सुरभिगधगुण तृप्तिहेतु पुद्गलसमूह को छे । तेमांथी कोशे 'गधसमूह' शब्दो लई लीधा. 'अभिधान राजेन्द्र' मां धणि रूपे एक शब्द 'उत्तराध्ययन' (सूत्र ३)मां एवा निदेश साथे 'सुभिक्ष', 'विभव' ऐवा अर्थ मा आप्यो छे ते पण शंका नेतिरे तेम छे। तेज कोशमां घाणि (छाया ध्राणि) तृप्ति'ना अथ मां, अने 'राजप्रश्नीय', 'जीवाभिगम'मांथी गधाघाणि (छाया गधाघ्नाणि) शब्द 'घ्राणेंद्रियनी निवृत्ति करनार गंधद्रव्य' एवा अर्थ मां नांध्यो छे. तेमां र्धािण ए' धणिने बदले अपपाठ के प्रमादथी अपायु जणाय छे । प्रामाणिक शब्दस्वरूप धणि ज छे.
प्राकृत कोशोमां धणि शब्दनो एक प्रयोग 'तृप्ति उत्पन्न करवानी शक्ति' ए अर्थमां विशेषावश्यकभाष्य मांथी पण नोंधायो छे ।।
धणि नी छायारूपे आपेलो ध्राणि संस्कृत कोशोमां नथी नोंधायो. मूल धातु |ति, वति. ध्रयति पाणिनीय धातुपाठ (२२,११)मां 'तृप्ति' अर्थमा आप्या छे. पण तेतेा संस्कृत साहित्यमांथी कोई प्रयोग नथी नोंधायो । 'नघंटुक' (२,१४)मां आपेला शताधिक गत्यर्थक धातुओमां जे ध्रोति, ध्रति, ध्रयति आप्या छे, ते धातुपाठना तृप्ति-अर्थक धातुथी जुदा जणाता नथी.
___ आ ध्रा के ब्रै उपरथी ध्राणि नाम (हा उपरथी हानि वगेरेनी जेम) थाय, तेम ध्रति रूप जातां ध्रणि पण थयु होय । ते उपरथी प्राकृत धणि । संस्कृतमां धे, ध्राणि के ध्रणिनो प्रयोग नथी मळ्यो, पण अपभ्रंशमांथी अने अर्वाचीन भाषाओमांथी तेमना के साधित शब्दोना प्रयोग टांकी शकाय तेम छ ।
पुष्पदंत कविना अपभ्रंश काव्य 'सहरचरिउ' मां धाइ 'धराय, तृप्त थाय' ने धणि तृप्ति, धरव' वपराया छे ।
अण्णम्मि जिमिम्मि अण्णो कहं धाडू (३, १३, ८) 'एक जण जमे तेथी बीजो कई रीते धराय ? ।
मिमि भुक्म्यि दुक्खिय सुक्ख-थणि थणु जीहइ लिहमि ण लहमि र्धाण (२, ३६,७)
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