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[ 53] भंगुरिद-कंधराइ तम्मइ वराह-पवरो ।
धाणुक्कावमुक्क-नाराय-विद्ध-करडि-घड-कुंभ-तड-निवडिदाविरल-रंधनिज्झर-झरंत-सोणिद-तरंगिणी-रइअ-बहल-पंक-खुप्पंत-चक्क-रह-संचराओ एआओ भीसणाओ समरवसुहाओ,
सुविसम-सीसयाइ' निवडंति हुंकरंताई पिच्छ निसिद-करवालधाराहिघाय-घुम्मंतयाइं संपइ इमाओ नच्चंति बहुविह-सुहड-कबंध-पंतीओ सुरवहु-मुक्क-पारिजाय-विडवि-कुसुमाओ ॥ १४१
'आ संग्रामभूमिमां
घोडाओनी खरीओथी खोदाती भोंयनी धूळना गोटाथी भराई जता आकाशमाथी प्रसरतो गाढ अंधकार आंखो पर छवाई जतां दृष्टि रूंधाई जवाथी जे आश्चर्यथी वशीभूत बनी गयुं छे तेवू देवोनुं वृंद उतावळे चोतरफ नीचे ऊतरी रडुं छे;
__विशाळ तुरंगसेनाना समुदायनी कूचथी खखडी जतां समग्र पृथ्वीमंडळ परनां मंदर, सुमेरु, कैलास, विध्य, गिरनार वगेरे पर्वतोनां शिखरो ढळी पडवाथी जेनी कांध भारने लीधे वांकी वळी गई छे तेवो धरणीवराह दुःखी थई रह्यो छे;
धनुर्धारीओए छोडेला बाणोथी गजघटाना वींधायेला कुंभस्थळोनां छिद्रोमांथी अविरत झरता शोणितप्रवाहथी बनेली नदीने लीधे थयेला कादवकीचडमां पैडा खूपी जतां मुश्केलीथी फरी शकता रथोने लीधे भीषण बनेली आ संग्रामभूमिमां जेमनां हुंकार करतां मस्तक तीक्ष्ण तलवारनी धारना प्रहारथी घूमतां कपाईने पडी जाय छे,
तेवी सुभटोना धडोनी केटकेटली हारमाळा नाची रही छे ते तुं जो-जे सुभटोनी उपर अप्सराओए पारिजात वृक्षनां पुष्पोनी वर्षा करी छ ।'
हेमचंद्राचार्य-रचित वृत्तियुक्त छंदोनुशासननो 'आर्या-गलितक-खंजक-शीर्षक-वर्णन'
नामनो चोथो अध्याय समाप्त
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